Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-162-स्कंध-5


स्कंध-5   स्थिति लीला

स्कंध १ -अधिकार लीला, स्कंध २ -ज्ञान लीला, स्कंध ३- सर्ग लीला, स्कंध ४-विसर्ग लीला,
और स्कंध ५ - को स्थिति लीला भी कहते है।

स्थिति -का अर्थ प्रभु का विजय। सर्व सचराचार प्रभु की मर्यादा में है।

पाँचवा स्कंध भागवत का भाष्य है।
दूसरे स्कंध में गुरु ने "ज्ञान" दिया।
उसे जीवन में कैसे उतारना -वह तीसरे और चौथे स्कंध -सर्ग-विसर्ग लीला में बताया।
अब प्रश्न यह है कि ज्ञान को स्थिर कैसे रखना?

अब तक मनु महाराज और शतरूपा के सन्तानो में-
दो पुत्र में से एक उत्तानपाद की बात आई।
अब दूसरा पुत्र प्रियव्रत की कथा इस स्कंध में आएगी।

वक्ता  अधिकारी हो और श्रोता सावधान होकर कथा सुने तो -
सांसारिक विषयों के प्रति धीरे-धीरे अरुचि और परमात्मा के प्रति रूचि जागती है।
प्रभु के प्रति प्रेम-भाव जाग जाए तो सात दिनों में यह कथा मुक्ति दिलाती है।
भागवत की कथा सुनने के बाद भी मुक्ति न मिले तो मानो कि -पूर्वचित्ती अप्सरा मन में अभी तक बैठी है।

पूर्वचित्ती अप्सरा की कथा इस स्कंध में आएगी।
पूर्वजन्म में जिनका उपभोग किया था,उन विषयों की वासना अब  भी चित्त में निहित रहती है -
वही वासना इस पूर्वचित्ती अप्सरा का रूप है। जीव और ईश्वर के मिलन में वासना बाधारूप है।

मनुष्य को चाहिए कि वह सुख-दुःख भोगकर प्रारब्ध का नाश तो करे,किन्तु नया प्रारब्ध उत्पन्न न करे।
मनुष्य इसी जन्म में अगले जन्म की तैयारी करता है। अतः ज्ञानीजन संसर्गदोष से दूर रहते है।

परमहंस हृषभदेवजी "ज्ञानी" है। जब कि- भरतजी भगवद् "भक्त" है।
"ज्ञानी" पुरुषों को लगता है कि सांसारिक प्रवृत्तियां ज्ञाननिष्ठा और भक्ति में बाधक है।
परमहंस (ज्ञानी) की यह निष्ठां है कि-
जगत में जो कुछ दिखाई देता है,वह सब मिथ्या है।
जगत को मिथ्या मानने से "वैराग्य" उत्पन्न होता है। और जगतको सत्य मानने से "मोह" उत्पन्न होता है।

जगत में जो दिखाई देता है,वह सब मिथ्या है,किन्तु इन सबको देखनेवाला (द्रष्टा-साक्षी) "आत्मा" सुखरूप है।


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