Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-163


दृश्य (जगत) "विनाशी और फलरूप" होने के कारण "ज्ञानी" अपनी द्रष्टि दृश्य (जगत) में नहीं रखते।
किन्तु इन सभी के "साक्षी" (द्रष्टा)  परमात्मा में द्रष्टि स्थिर  करते है।

मन को आत्मासे सत्ता मिलती है। आत्मा मनका  "दृष्टा और साक्षी" है।
मन को पाप करने की अनुमति कभी मत दो।

ऋषभदेव मन को दृश्य (जगत) में कभी जाने नहीं देते थे और मन को ईश्वर में स्थिर रखते थे,
जिससे मन प्रभु में मिल जाये और सुख-दुःख का स्पर्श न हो।

जैसे,निद्रा में मन निर्विषयी बनता है। और,निद्रावस्था में मन जिस प्रकार होता है,
वैसा ही जागृतावस्था में भी रहे तो समझ लो कि  मुक्ति ही है।
ज्ञानी पुरुषो के लिए संसार बाधक नहीं है।
ज्ञानी पुरुष स्वेच्छा से नहीं,किन्तु अनिच्छा से प्रारब्ध के कारण जीते है।

"ज्ञानी" जगत को "असत्य" मानते है,तो भगवद्-भक्त  जगत को "सत्य" मानते है।
ज्ञानी और भगवद्-भक्त के "लक्ष्य" (परमात्मा) तो एक ही है,किन्तु "साधन" भिन्न है।
ज्ञानी परमहंस जगत को मिथ्यारूप (असत्य) अनुभव करते है।
भगवत परमहंस जगत को वसुदेवस्वरूप (सत्य) समझते है।

शंकर स्वामी (आदि शंकराचार्य) ने जगत को मिथ्या माना है। (वेदांत-अद्वैत-सिध्धांत)
इन दोनों (ज्ञानी और भक्त की) निष्ठाओं में शाब्दिक भेद है,तत्वतः नहीं।
जगत असत्य और सभी का दृष्टा ईश्वर सत्य है,ऐसा "ज्ञानी" मानते है।
वैष्णव "भक्त" मानते है कि जगत ब्रह्म का ही स्वरुप है।

वेदांती का विवर्तवाद है और वैष्णवों  का परिणामवाद।
वेदांती का विवर्तवाद कहता है-की-दूध (परमात्मा से दही (जगत) बनता है किन्तु दही -दूध नहीं है।
वैष्णव कहते है की-ईश्वर में से जगत का जो परिणाम (जन्म)हुआ है,वह दही की भांति नहीं
किन्तु सुवर्ण से बने आभूषण की भांति हुआ है।
सुवर्ण का टुकड़ा सुवर्ण ही था और आभूषण बनने के पश्चात् भी सुवर्ण ही रहा।
जगत ब्रह्म का ही "परिणाम"  हे,अतः सत्य है।

ज्ञानी परमहंस और भागवत परमहंस -दोनों का लक्ष्य एक ही है-परमात्मा।
पर साधन अलग है। खंडन-मंडन के संघर्ष से दूर रहना ही अच्छा है क्योंकि उससे राग-द्वेष बढ़ता है।
दोनों सत्य है क्योंकि दोनों का लक्ष्य है -परमात्मा।


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