Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-164


ज्ञानी परमहंस -ऋषभदेव "ज्ञान" से उपदेश देते है। भागवत परमहंस "क्रिया" से उपदेश देते है।
भागवत परमहंस -भरतजी सर्व में ईश्वर का भाव रखकर सर्व की सेवा करेंगे-
जबकि ज्ञानी  परमहंस ऋषभदेव को देहाध्यास ही नहीं है।वे आदर्श ज्ञानी परमहंस है।  

ज्ञान का आदर्श बताने के लिए-ऋषभवतार की कथा-पहले आएगी, फिर भरतजी कथा।

परीक्षित राजा आरम्भ में प्रश्न करते है -मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत की विवाह करने की इच्छा नहीं थी
फिर भी उन्होंने विवाह क्यों किया? गृहस्थाश्रम निभाते हुए भी उन्होंने सिध्धि  की प्राप्ति कैसे की?
किस प्रकार कृष्ण में उनकी भक्ति दृढ़ हुई।

शुकदेवजी वर्णन करते है -

घर भक्ति में बाधकरूप है। घर में विषमता(पक्षपात)करनी पड़ती है। गृहस्थ सभी की और समभाव नहीं रख सकता। वह शत्रु,मित्र.चोर,शठ- आदि सभी के प्रति समभाव नहीं रख सकता।

श्रीकृष्ण एक आदर्श ग्रहस्थाश्रमी है। उनका गृहस्थाश्रम ऐसा था कि सभी के प्रति समभाव रखते थे।
एक बार दुर्योधन उनसे सहायता मांगने आया। वैसे तो उसने  कुछ समय पहले श्रीकृष्ण का अपमान किया था,
फिर भी निर्लज्ज होकर वह सहायता की याचना करने चला आया।
श्रीकृष्ण उस समय सोए हुए थे,इसलिए अक्कड से वह सिर  के पास बैठा।
अर्जुन भी उसी समय मदद मांगने आया। वह भगवान के चरण के पास बैठा।

भगवान जब जागे -तो उनकी पहली द्रष्टि अर्जुन की तरफ पड़ी।
उन्होंने अर्जुन से कहा-तुझे जो चाहिए वह माग.
दूर्योधनने कहा कि -मे अर्जुन से पहले आया हूँ,अतः मांगने का अधिकार पहला मेरा है।
श्रीकृष्ण ने कहा -मे तुम दोनों की सहायता करूँगा।
एक के पक्ष में मेरी नारायणी सेना होगी और अन्य के पक्ष में निःशस्त्र मै।

दूर्योधनने सोचा कि- कृष्ण तो बातें ही बनायेंगे और मुझे युध्ध करने वालों की आवश्यकता है,बातों की नहीं।
उसने नारायणी सेना मांगी। अर्जुन ने श्रीकृष्ण को माँगा।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन और दुर्योधन दोनों के प्रति समभाव रखा।
श्रीकृष्ण ग्रहस्थाश्रमी नहीं,आदर्श सन्यासी है।

ग्रहस्थाश्रमी होने पर भक्ति में बाधा उपस्थित होती है,
अतः राजा प्रियव्रत ने सोचा कि इस व्यवहार का मुझे त्याग करना होगा।
उनकी इच्छा हुई कि मै एकांत में ईश्वर की आराधना करूँगा।
वहाँ ब्रह्माजी ने आकर राजा से कहा -प्रारब्ध को भुगतना ही पड़ता है।
मै भी परमात्मा की आज्ञा से प्रारब्ध भुगत रहा हूँ। मुझे भी प्रवृत्ति करने की इच्छा नहीं है।
तुम्हारे लिए अभी वनगमन की आवश्यकता नहीं है। सावधानी से व्यवहार करो।
जितेन्द्रिय तो घर में रहकर भी ईश्वर की आराधना कर सकता है।
और जो जितेन्द्रिय नहीं है,वह तो वन में भी प्रमाद ही करेगा।

आगे कथा आएगी के भरतजी ने-स्त्री-पुत्र का त्याग करके वन में जाकर संसार बसाया।
जब की प्रह्लाद ने दैत्यों के साथ रहकर,कई प्रकार के कष्ट सहकर घर में ही भक्ति की थी।


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