घर का वातावरण प्रतिकूल होते हुए भी प्रह्लाद ने घर में रहकर भक्ति और भगवान के दर्शन किये।
घर छोड़े तो भगवान मिले ऐसा नहीं है। जिसके मन में घर है,संसार है -वह जहाँ भी जाये संसार खड़ा करता है। मनुष्य के छ शत्रु-विकार-चोर,वे जहाँ जाओ उसके पीछे पड़ते है। (काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद और मत्सर)
इन विकारों के वश जो नहीं होता उसके लिए घर बाधा-रूप नहीं है।
गृहस्थाश्रम एक किला है। पहले उसमे रहकर ही लड़ना उत्तम है। इन विकारो को हराना है।
इन छ शत्रुओं का विजेता -गृहस्थ होते हुए भी वनवासी जैसा ही होता है।
ब्रह्माजी राजा प्रियव्रत से कहते है -तुम विवाह करो। विवाह किये बिना विकारवासना नष्ट नहीं हो सकती।
कुछ समय के लिए संसार सुखो का उपभोग करने के पश्चात परमात्मा की आराधना करो।
ब्रह्माजी के आज्ञा से प्रियव्रत ने विवाह किया। उनके घर कई बालक हुए।
उनके बाद आग्निध्र ने शासन किया। वे तपश्चर्या करने वन में गए।
उनके तप में पूर्व की वासना -पूर्वचित्ति से बाधाएं आने लगी।
चित में रहने वाली पूर्वजन्म की वासना ही पूर्वचित्ति है,
भोगे हुए विषय-सुख का स्मरण और उनके कारण मन में बसी हुई सूक्ष्म वासना ही पूर्वचित्ति है।
जब तक विषयो का आकर्षण है तब तक विषयेच्छा नष्ट नहीं हो पाती।
पूर्वचित्ति का अर्थ है पूर्व के संस्कार। निवृति होने पर भी पूर्व की वासना का स्मरण होते रहना ही पूर्वचित्ति है।
आग्निध्र राजा पूर्वचित्ति में फंसे हुए है।
आग्विघ्र के घर नाभि हुए। नाभि के घर पुत्ररूप में ऋषभदेव हुए।
हृषभदेवजी ज्ञान के अवतार थे। ऋषभ का अर्थ है सर्वश्रेष्ठ।
ज्ञानी परमहंसो का व्यव्हार-वर्तन किस प्रकार होता है,बताने के लिए भगवान ने
ऋषभदेवजी के रूप में जन्म लिया। वे जगत को ज्ञानी परमहंस का आदर्श बताना चाहते है।
भुगती हुई चीजो की आशा रखना -उसका नाम "आशा" है।
भुगती हुई चीजो को पुनः पुनः याद करना -उसका नाम "वासना" है।
पर,जो,आनंदमय परमात्मा में बुद्धि स्थिर करते है, वह ब्रह्मनिष्ठ है।
ऋषभदेवजी को अनेक सिद्धियाँ मिली है पर वे उनमे फंसे नहीं है।
मुँह में पत्थर रखते है,बोलने की इच्छा हो तो भी बोल नहीं सकते।
अजगरवृत्ति रखी है-मिले तो खाना,नहीं तो कुछ नहीं। वे नग्नावस्था में घूमते है।
खड़े-खड़े ही बैल की भाँति भाजी का आहार करते है। उनके माल -मूत्र से दुर्गन्ध नहीं -पर सुगंध आती है।
कोई मारे तो -सोचते है-"मेरे शरीर को मार पड़ता है। मै शरीर से अलग हूँ। ब्रह्मनिष्ठ हूँ। "