Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-166


श्रीफल -नारियल में अंदर सफ़ेद गोला और उसका सख्त आवरण एक न होने पर भी जब तक अंदर पानी है,
तब तक वे एक-दूसरे को छोडते नही है।
इसी प्रकार जब तक मनुष्य को विषय में रस है,आसक्ति है तब तक शरीर और आत्मा की भिन्नता का
अनुभव नहीं हो सकता। शरीर आवरण है,आत्मा गोला है,विषयरस पानी है।

सच्चा सुख शरीर में नहीं है। शरीर सुख वह सच्चा आनंद नहीं है।
शरीर का सुख वह मेरा सुख-ऐसा जो समझे वह अज्ञानी है।
सतत ध्यान करके ज्ञानी लोग जड़-चेतन की गांठ छोड़ते है,और आत्मानंद -परमानन्द लूटते है।

वैराग्य के बिना ब्रह्मज्ञान स्थायी नहीं हो पाता।
जो ब्रह्मज्ञाम की बातें कताहै,पर धन और प्रतिष्ठा से प्रेम करता है,वह,सच्चा ज्ञानी नहीं है।
सच्चा ज्ञानी वह है जो ईश्वर से प्रेम करता है।
ईश्वर के बिना संसार के जड़-पदार्थों से स्नेह -प्रेम करे वह ज्ञानी नहीं है।
ब्रह्मज्ञान होने के बाद ईश्वर से प्रीति होने पर ही ब्रह्मानंद प्राप्त होता है।
तप करने से अंतः करण शुध्ध होता है। अंतः करण की शुध्धि से अनंत ब्रह्मसुख की प्राप्ति होती है।

योगवासिष्ठ रामायण में ज्ञान की सात भूमिका बताई है।
शुभेच्छा,सुविचारणा,तनुमानसा,सत्वापत्ति,असंसक्ति,पदार्थभाविनि और तुर्यगा।

(१) शुभेच्छा -आत्मा के साक्षात्कार के लिए उत्कृष्ट इच्छा।
(२) सुविचारणा - गुरु के वचनों का तथा मोक्षशास्त्रों का बार-बार चिंतन।
(३) तनुमानसा  - श्रवण,मनन और निदिध्यासन,विषयों के प्रति अनासक्ति और सविकल्प समाधि में
                       अभ्यास द्वारा बुध्धि को जो तनुता-सूक्ष्मता प्राप्त होती है।
(४) सत्वापत्ति - उपयुक्त तीन से साक्षात्कार पर्यन्त स्थिति अर्थात निर्विकल्प समाधि रूप स्थिति।
                       ऐसा भूमिका वाला ब्रह्मविद् कहलाता है।
(५) असंसक्ति - चित्त-विषयक परमानंद और नित्य ब्रम्हात्व भावना का साक्षात्कार रूप चमत्कार ही
                     असंसक्ति है।
(६) पदार्थभाविनि - पदार्थो की दृढ़ अप्रतीति होती है।  
(७) तुर्यगा - तीनो अवस्था से मुक्त होना,तुर्यगा है। ब्रह्म को जिस अवस्था में आत्मरूप और अखंड जाने।

इन सातों भूमिकाओं में से प्रथम तीन भूमिकाएं "साधनकोटी" की है और अन्य चार "ज्ञानकोटी" की है।
तीन भूमिकाओं तक सगुण ब्रह्म का चिंतन करो।
ज्ञान की पाँचवी भूमिका तक पहुँचने पर जड़ और चेतन की ग्रंथि छूट जाती है
और आत्मा का अनुभव होने लगता है। आत्मा शरीर से भिन्न है।
इन  भूमिकाओं में उत्तरोत्तर देह का अहसास  चला जाता है और अंत में उन्मत्त दशा प्राप्त होती है।

हृषभदेवजी ने ऐसी दशा प्राप्त की थी।
ऋषभदेव कर्णाटक में आए। वहाँ उन्होंने दावाग्नि में प्रवेश किया। “देह जलता है पर आत्मा को कुछ नहीं होता।”ऐसी आत्मनिष्ठा परमहंसो के लिए है। ऋषभदेवजी का चरित्र सामान्य मनुष्य के लिए अनुकरणीय नहीं है।

ऋषभदेवजी का सबसे श्रेष्ठ पुत्र भरत था। इसी भरत के नाम से अपने देश का नाम भरतखंड पड़ा।
उनकी कथा वर्तमानकाल के लिए उपयोगी है। उनके संग से सभी में भगवतभाव जागता था।

भरतजी ने व्यव्हार की मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं किया था। वे महा वैष्णव होने पर भी यज्ञ करते थे।
अग्नि ठाकुरजी  का मुख है।
वे प्रत्येक देव को इष्टदेव का ही रूप मानकर अन्य देवों में कृष्ण का अंश मानकर पूजा करते थे।
अनेक यज्ञ करके उसका सारा पुण्य श्रीकृष्ण के चरणो में अर्पित करते थे।


   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE