कर्मफल के उपभोग की इच्छा रखोगे तो कर्म का अल्प फल ही मिलेगा।
यदि वह कर्म -फल भगवान को अर्पित करोगे तो अनंत फल मिलेगा।
सकाम कर्म में क्षति होने पर क्षमा नहीं मिलती।
भरतजी निष्काम भाव से कर्म करते थे और उसका पुण्य श्रीकृष्ण को ही अर्पित करते थे।
हरेक सत्कर्म की समाप्ति में कहा जाता है कि -
अनेन कर्मणा भगवान परमेश्वरः प्रियताम् न मम,न मम।
ऐसा सब बोलते है किन्तु कोई अर्थ नहीं समझते।
कर्म का फल मेरा नहीं है। कृष्णार्पण करता हूँ।
गीता में भी कहा है -कर्म के फल पर तेरा अधिकार नहीं है। (कर्मण्येवाधिकारस्ते)
एक बार भरतजी को जवानी में वैराग्य आया। भरतजी को घर में मन नहीं लगता।
राजवैभव,सुख-सम्पत्ति स्त्री-पुरुष आदि सब कुछ है,परन्तु आँखे बन्द होने पर इसमें से कुछ भी नहीं रहता।
जन्म के पहले और मृत्यु के बाद -कोई रिश्तेदार नहीं रहने वाले। केवल माया ही बीच में भरमाती है।
भरतजी सोचते है कि सांसारिक सुख तो अनेक वर्ष भुगता पर अब विवेक से उसका त्याग करूँगा।
जवानी में ही उन्होंने संसार सुख का बुद्धिपूर्वक त्याग किया।
विषयों को अनिच्छा से छोड़ना पड़े तो दुःख होता है।
किन्तु विषयो को समझकर स्वैच्छिक त्याग करने से शान्ति मिलती है।
यदि विषय हमे छोड़े तो अशान्ति होती है किन्तु यदि स्वयं हम उन्हें छोड़ दे तो शांति प्राप्त होती है।
ईश्वर की माया विचित्र है।
भरतजी ने राज्य का त्याग किया,रानियों का त्याग किया और सर्वस्व का त्याग करके वन में आये।
वन में उन्हें एक मृगबाल से स्नेह हो गया और अपने मन में उसे स्थान दे बैठे।
इस आसक्ति के कारण उनका भजन-ध्यान आदि खंडित हो गए और उन्हें मृगयोनि में जन्म लेना पड़ा।
भरतजी के मन में मृगबाल के लिए आसक्ति ने जन्म लिया,और वह उनके पुनर्जन्म का कारण बना।
जगत में किसी भी पदार्थ से इतना स्नेह मत करो कि जिससे वह तुम्हारी प्रभु-भक्ति में बाधा बन जाए।
अतः अपने घर में चाहे किसी को भी रख लो,किन्तु मन में किसी को भी बसने मत दो।
मन में किसी को भी रखोगे तो वह प्रभु-भक्ति में बाधा रूप होगा।
श्रीरामकृष्णपरमहंस कहते थे कि संसार में नौका की भांति रहना चाहिए।
पानी पर रहने से नौका तैरती रहेगी,किन्तु नौका में पानी आ जाए तो वह डूब जाएगी।
इसी प्रकार संसार में तुम रहो किन्तु उसे अपने में मत रहने दो। अर्थात निर्लेप भाव से संसार में रहो।
शरीर नौका है,संसार समुद्र है और विषय जल है।
विषयो का चिंतन करने से आत्मशक्ति नष्ट होती है।
ममता बंधनकर्ता है। मन के मरने पर ही मुक्ति प्राप्त होती है। बंधन मन का होता है,आत्मा का नहीं।
आत्मा तो मुक्त ही है। गृहत्याग की आवश्यकता नहीं है। घर में सावधान होकर रहना है।