जबकि वन में एकांत में भी भरतजी मृगबाल पर आसक्त हुए और भजन न कर सके।
प्रतिकूल संयोग और वातावरण में भजन किस प्रकार किया जाये,यह प्रह्लाद ने जगत को बताया है।
और अनुकूल वातावरण के होने पर भी मनुष्य सावधान न रहे तो वह भजन नहीं कर सकता,
ऐसा हमे भरतचरित्र ने बताया है।
घर छोड़कर महात्माओं को माया कैसे सताती है वह यह कथा हमे बताती है।
भरतजी की कथा अब शुरू होती है।
भरतजी ने जवानी में गृहत्याग किया। पृथ्वी के सर्वभौम राजा थे। पर किसी को साथ नहीं लिया है।
भरतजी ने सोचा कि एकांत में बैठकर ईश्वर की आराधना करूँगा।
वे नेपाल की गंडकी नदी के किनारे आए है। वहाँ वे आदिनारायण भगवान की आराधना करने लगे।
ईश्वर के सिवा अन्य किसी का भी संग भजन में विक्षेप करेगा। जिसे तप करना है वह अकेला ही तप करे।
सदा ऐसा सोचो कि मै अकेला नहीं हूँ,मेरे ईश्वर मेरे साथ है। ईशर के सिवा अन्य को रखोगे तो दुखी होगे।
भरतजी अकेले ही तप करने गए थे। गंडकी का दूसरा नाम है शालीग्रामी।
भरतजी का नियम था -सुबह चार बजे ब्राह्ममुहूर्त में स्नान करना।
कटितक जल में खड़े रह कर सूर्यनारायण का ध्यान और गायत्री मन्त्र का जप करते थे।
सूर्यनारायण बुध्धि के देवता है।
सूर्यनारायण की कृपा से बुध्धि सुधरती है और उसकी असर मन पर पड़ती है तो मन भी सुधरता है।
उगते सूर्य की किरण तन पर पड़ती है तो तन भी सुधरता है।
वे जगत को हमेशा प्रकाश देते है। उनके उदय न होने से जगत का प्रलय होता है।
समस्त स्थावर-जंगम की आत्मा सूर्य है।
सूर्यनारायण सभी को प्रकाश देते है पर किसी को बिजली का बिल नहीं भेजते। वे रविवार को भी छुट्टी नहीं लेते।
सूर्य परमात्मा का साकार स्वरुप है।
(जरा सोचो-तो समझोगे-कि-सूर्य को भी प्रकाश देने की शक्ति देने वाला है-वो निराकार परमात्मा है। )
भरतजी प्रार्थना करते है -मेरी बुध्धि,मेरा मन कही दुमार्गी न हो जाये।
भगवान के तेजोमय रूप का मै चिंतन करता हूँ। जो मेरी बुध्धि को सही मार्ग बताए ,प्रकाशित करे।
(गायत्री मन्त्र)
गायत्री मन्त्र के अर्थ और ज्ञान के साथ जप करने से मन्त्र की सही असर होती है।
भरतजी ने पहले ठाकुरजी की प्रत्यक्ष सेवा खूब की थी। अब वे वन में मानसी सेवा करने लगे।
अधिकतर पाप शरीर से नहीं,मन से होता है। अतः मानसी ध्यान,मानसी सेवा श्रेष्ठ है।
ईश्वर में मन से तन्मय होना ही मानसी सेवा है।
एक बार एक बनिए ने गोसाईंजी के पास जाकर कहा -
महाराज, मै प्रभु-सेवा तो करना चाहता हूँ,किन्तु एक भी पैसे के खर्च के बिना सेवा हो सके ऐसा मार्ग बताइये।
गोसाईंजी ने मानसी सेवा का मार्ग बताते हुए उसे कहा -
केवल मन से संकल्प करते रहना कि- मै भगवान को स्नान करा रहा हूँ,वस्त्र पहना रहा हूँ ,
पूजा कर रहा हूँ ,भोग लगा रहा हूँ,भगवान भोजन कर रहे है,आदि।