Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-169


फिर गोसाईंजी ने उससे पूछा -तुझे भगवान का कौन सा स्वरुप अधिक प्रिय है?
बनिए ने उत्तर दिया -मुझे तो भगवान का बालकृष्णस्वरूप अधिक प्रिय है।

गोसाईंजी ने कहा -प्रातःकाल में ऐसी भावना करना कि -
ठाकुरजी के लिए गंगाजी का जल ले आया हु, और ऐसा भाव जगाना कि ठाकुरजी वह जलसे स्नान कराना है।
गाय का दूध और मक्खन मन से ले आना।
यशोदाजी जैसी भावना रखकर सोते हुए बालस्वरूप के दर्शन करना।
सोते हुए बालक्रिस्न बहुत सुन्दर दिखते है। घुँघराले बाल मुख पर आये है और वे मुस्करा रहे है।  
बाद में कन्हैया को मंगल गीत गाकर जगाना। बालकृष्ण को दूध और मक्खन अर्पित करो।
(अगर बालकृष्ण को मनाना पड़े तो प्रेम से मनाओ)

फिर थोड़े गरम जल से उनको स्नान कराओ और उनमे तन्मय होकर उनका श्रृंगार करो।
फिर उनसे पूछो  कि  आज कौनसा पीताम्बर पहनोगे?
बालकृष्ण को जो पसंद है वह पहनाओ।श्रृंगार में तन्मयता होने पर ब्रह्मानंद-सा आनंद प्राप्त होता है।

फिर उन्हें तिलक करो,माला पहनाओ,नैवेध्य अर्पण करो।
नैवेध्य  देकर भावना करो कि बालकृष्णजी प्राशन कर रहे है।
फिर आरती करके क्षमा -प्रार्थना करो कि मेरी कोई भूल हुई हो तो मुझे माफ़ करना।

गोसाईंजी के द्वारा बताई हुई रीती के अनुसार
बनिए ने बारह साल तक रोज बालकृष्ण की  प्रेम से मानसी सेवा की
और उसमे इतनी तन्मयता आई कि सभी चीजें प्रत्यक्ष दिखाई देने लगी।

बारह साल तक सत्कर्म नियम से किया जाए तो वह सिध्ध होता है और मन की चंचलता कम होती है।
एक बार ऐसा हुआ कि वह कटोरे में दूध ले के आया और दूध में गलती से  चीनी ज्यादा डाल  दी।
बनिया ये कैसे सह सकता है। स्वभाव सहज कृपणता कैसे मिट सकती है?
प्राण और प्रकृति साथ-साथ ही तो जाते है।
उसने सोचा जरूररत से ज्यादा चीनी डाली है तो उसे निकाल दू -तो दूसरे काम में आएगी।
अब यहाँ न तो बर्तन था न तो  चीनी-- कुछ भी वहां नहीं था क्योंकि  वह तो मानसी सेवा करता था।
फिर भी तन्मयता के कारण सब कुछ प्रत्यक्ष दिखाई देता था।
अतः उसने मन ही मन कल्पना में उस चीनी को निकालने लगा।

कन्हैया ने सोचा कि  जैसा भी हो किन्तु बनिए ने मेरी बारह वर्षों तक मेरी मानसी सेवा की है।
अतः उन्हें प्रगट होने की इच्छा हुई। उन्होंने प्रगट होकर बनिए का हाथ पकड़ा और कहा कि -
चीन अधिक चली गई तो क्या हुआ?तूने तो एक पैसे का भी खर्च नहीं किया है।
पर, ऐसे, भगवत-स्पर्श होने से बनिया सच्चा वैष्णव बन गया। वह उनका अनन्य सेवक हो गया।

शंकराचार्य भी महाज्ञानी होने के पश्चात्त श्रीकृष्ण की मानसी सेवा करते थे।
भरतजी मानसी सेवा करते हुए तन्मय हुए है। सेवा करते हुए थक जाते तो ध्यान और कीर्तन करने लगते।

प्रभु के पीछे जो पड़ता है उसे ही माया सताती है।
सांसारिक विषयों में जो फंसा हुआ है,उसे माया नहीं सताती,
क्योकि माया मानती है कि यह तो मरा हुआ है तो फिर उसे और क्यों मारू।

जो व्यक्ति प्रभु  के पीछे पड़ा हुआ है,उसे माया अधिक सताती है,किन्तु जो माया के प्रवाह में बहता है,
उसके लिए वह बाधारूप नहीं होती। माया मानती है कि यह तो मेरा बंदी है। माया की गति बड़ी विचित्र है।

एक बार कमर तक जल में भरतजी खड़े हुए थे।
ग्रीष्म ऋतु थी। एक गर्भवती हरिनी जलपान करने आई।
इतने में कहीं से सिंह ने गर्जना की जिससे वह हरिनी भयभीत हो गई।
उसने सोचा की गंडकी नदी पार कर लू और उसने छलांग मारी।
प्रसवकाल समीप था अतः हरिन  बाल का जन्म हो गया और वह नदी के जल में गिर गया।
दूसरे किनारे हरिणी की मृत्यु हो गई।


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