Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-170


भरतजी ने उस हिरण्यबाल   को नदी के जल में पड़ा हुआ देखा। उन्होंने इस बच्चे में श्रीहरि का  दर्शन किया।  
वे सोचने लगे कि इसकी माता की तो मृत्यु हो गई,सो इसका जगत में कोई नहीं रहा।
अब इसका लालन-पालन रक्षा आदि कौन करेगा? वे दयावश होकर उस बच्चे को अपने आश्रम में ले आये।

वे सोचने लगे कि यह बच्चा मेरे सिवाय किसी और को नहीं पहचानता। इसका लालन-पालन करना मेरा धर्म है।
मै उसकी  उपेक्षा करूँगा तो वह मर जायेगा। मै ही इसका माता-पिता हूँ। इसका पोषण करना मेरा कर्तव्य  है।

जीव मानता है कि "मै"  दुसरो की रक्षा करता  हूँ।
पर वह क्या दूसरो की रक्षा करेगा?  वह भी तो काल का ग्रास है।
रक्षा करने वाले तो प्रभु ही है। कर्ताहर्ता,पालक और संहारक भी ईश्वर ही है।
तुम घर में रहो या वन में,रक्षा करने वाला तो श्रीहरि ही है।

भरतजी हिरण्य-बाल का लालन-पालन करने लगे।
धीरे-धीरे वह बड़ा होने लगा। भरतजी उसे गोद में बैठाते और उसके साथ खेलते थे।
उनका मन अब इस हिरन-बाल  में फंस गया है अतः प्रभु भजन में उनका मन स्थिर नहीं हो पाता।
हर पांच-दस क्षण के बाद वह बच्चा दिखाई देता।
वासना का विषय तो बदल गया किन्तु वासना तो मन में रह गई।

भरतजी ने हिरण्यबाल   को घर में रखा वह तो ठीक किया पर मन में रखा वह ठीक नहीं किया।
मन मे या काम को रखो या फिर ईश्वर को। दोनों साथ-साथ नहीं रह पाएंगे।
तुलसीदास -कहते है कि-"तुलसी दोनों नहीं रहे,रवि रजनी इक ठाम। "
भजन और भक्ति में बाह्य संसार नहीं,अंतर संसार ही बाधारूप  है।

वह हिरण्य-बाल  भरतजी की कुटिया में नहीं,मन में भी बस गया। उन्होंने घर,राज्य,पत्नी,संतान आदि सबका त्याग किया तो सही,पर अंत में इस बच्चे की माया में फंस गए।

परोपकार की भावना ही साधक के लिए उसकी साधना में बाधक होती है।
परोपकार करना सभी का धर्म है,परन्तु ऐसा भी न किया जाये कि जिससे प्रभु का विस्मरण हो जाये।
संसार में मनुष्य कपटी न बने किन्तु अति  सरल भी न बने।
परमात्मा का ध्यान कदाचित न हो सके तो कोई बात नहीं,किन्तु मित्र कभी भी शत्रु बन सकता है।

भरतजी का प्रारब्ध ही हिरणबाल के रूप में सामने आया। प्रारब्ध को भुगतना ही पड़ता है।

ज्ञानी के दो प्रकार है।
जिसने अधिक उपासना की हो वह कृतोपास्ति ज्ञानी है। उसे माया नहीं सताती।
किन्तु जो अकृतोपास्ति ज्ञानी है,उसके लिए माया विघ्नकर्ता है।
वासना के नाश के बिना तत्वानुभव नहीं होता। वासना का नाश किये बिना तत्वज्ञान की प्राप्ति होने पर भी ब्रह्मनिष्ठा नहीं होती। भरत चरित्र यह बताता है।
भरतजी को अब तक अपरोक्ष साक्षात्कार नहीं हुआ था। यदि होता तो उनका मन  हिरण्यबाल में नहीं फँसता।


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