Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-171



भरतजी का अंत काल नजदीक आया है। आज उन्हें हरि नहीं पर हिरण्यबाल याद आ रहा है.
हिरण्यबाल का चिंतन करते करते उन्होंने शरीर का त्याग किया है।
मृत्यु के समय हिरण्यबाल का चिंतन करते रहने के कारण उन्हें अगले जन्म में हिरण का ही जन्म लेना पड़ा।

पूर्वजन्म में किया हुआ तप -भजन व्यर्थ नहीं जाता। हिरण शरीर में भी उन्हें पूर्वजन्म का ज्ञान है।
पशु शरीर में भी वे “हरये नमः हरये नमः का जप करते थे।
वे सोचते है कि पूर्वजन्म में मै महाज्ञानी और योगी था पर माया ने मुझे धोखा दिया।
हिरण्यबाल के प्रति आसक्ति होने के कारण मुझे आज चौपाया पशु बनना पड़ा।
अब मुझे नया प्रारब्ध नहीं उत्पन्न करना है।

भरतजी अब सावधान है। जितना समय हिरणबाल के साथ प्रेम किया उतना समय हिरण शरीर में रहना पड़ा। प्रारब्ध कर्म पूरा हुआ। इसलिए एक दिन हरये नमः करते करते देह त्याग किया और एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया।

शुकदेवजी वर्णन करते है - राजन,ब्राह्मण के भर उनका जन्म हुआ है। यह उनका अंतिम जन्म है।
उन्हें पूर्वजन्म का ज्ञान है कि हिरण की माया में फंसने के कारण उन्हें पशुदेह धारण करना पड़ा था।
भरतजी सोचते है कि -
अब इस जन्म में मै किसी के साथ भी नहीं बोलूँगा। एक बार भूल हो गई। अब सावधान रहूँगा।
अब मुझे परमात्मा के शरण में जाना है।

इस ब्राह्मण जन्म में भरतजी बोलते नहीं है। तो लोग उन्हें मूर्ख समझते है।
भरतजी सोचते है कि लोग मुझे मूर्ख माने तो इसमें क्या बुराई है?
पूर्वजन्म में ज्ञान का प्रदर्शन करने गया तो दुखी हो गया।

ज्ञान अन्य को उपदेश दने के लिए नहीं,ईश्वर की आराधना करने के लिए है।
ज्ञान या  धन  प्रतिष्ठा कमाने के लिए नहीं,परमात्मा की प्राप्ति के लिए है।

सांसारिक दृष्टि में संत जड़ होता है,परन्तु
आनंदमय चेतन प्रभु को भूलकर,सांसारिक सुखो में फंसा हुआ मनुष्य सचमुच जड़ है।
प्रभुप्रेम में मस्त,देहभान से अज्ञात महापुरुष को जड़ कैसे कहे?
किन्तु संसार की विपरीत मान्यता के कारण संसारिक लोगो ने भरतजी का नाम "जड़भरत" रखा।

जड़भरत के पिताजी उन्हें पढ़ाने लगे और सोचने लगे  कि मेरा बेटा पढ़ लिखकर बड़ा पण्डित होगा।
किन्तु इनकी पंडिताई निराली थी। भरतजी की पण्डिताई सच्ची थी।
तुलसीदासजी ने कहा है -
परमन परधन हरन कू,वेश्या बड़ी प्रवीन
तुलसी सोई चतुरता,रामचरन लवलीन।
(परमात्म के चरण में मन लगाना वही सच्ची चतुरता है। परमन और परधन का आकर्षण करने में तो वेश्या भी बड़ी चतुर है-पर वह सच्ची चतुरता नहीं है। )

माता-पिता ने शरीर का त्याग किया। फिर जड़भरतजी पागल की भांति घूमने लगे।
पागल से लगते थे पर वे एक क्षण भी कृष्ण को नहीं भूलते थे। एक जगह बैठे रहते है।पंचकेश बढ़ गए है।
किसी के देने पर खाते  है। किसी भी तरह की चिंता नहीं है इसलिए हृष्टपुष्ट हो गए है।
सांसारिक व्यवहार  की कहीं माया न लग जाए,
इस हेतु से वे परमात्मा नारायण की आराधना करते हुए एक दिन खेत में बैठे हुए थे।


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