Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-172


एक भील राजा निःसन्तान थे।
उन्होंने मनौती मानी थी की संतान होगा  तो भद्रकाली को नरबलि की भेट चढ़ाऊँगा।
पुत्र का जन्म हुआ। राजा ने आज्ञा दी कि किसी नर को ले आओ।
राजसेवको ने जड़भरत को खेत में देखा। उन्होंने सोचा कि  यह अच्छा तगड़ा है। जड़-भरत को पकड़ ले गए।
वे उन्हें भद्रकाली के मंदिर में ले आये।

माताजी को बलिदान दो किन्तु किसी जीव का नहीं। काम,क्रोध,लोभ आदि दुर्गुण ही पशु है।
उन्ही को बलिदान दो। देवी भागवत में बलिदान का यही अर्थ बताया गया है ।

भरतजी को स्नान कराया,पुष्पमाला पहनाई  और भोजन के बाद पकवान दिए गए।
उसके बाद वे उन्हें मंदिर के अंदर ले गए।
जड़भरतजी ने माताजी को मन-ही-मन प्रणाम किया और सिर नमाकर शांत चित्त से बैठ गए।

भीलराजा ने भद्रकाली की प्रार्थना की और वे तलवार लेकर बलिदान देने के लिए तैयार हो गया।
सबके प्रति समभाव सिध्ध करने वाले भरतजी को देखकर माताजी का ह्रदय भर आया।
उनसे ये हिंसा देखी नहीं गई।
भद्रकाली मूर्ति तोड़कर प्रगट हुई और भील राजा की तलवार लेकर उसी का मस्तक काट दिया।

ज्ञानी भक्त मानता है कि सहस्त्रबाहु भगवान उसकी रक्षा के लिए खड़े हुए है। दो हाथों वाला मनुष्य क्या कर पायेगा? ज्ञानी भक्त माताजी को भी प्यारे है। शिव और शक्ति में भेद नहीं है।
भरतजी सोचते है कि अब मेरा प्रारब्ध पार करना है। शरीर जहाँ  ले जाये वहाँ  जाना है।
घूमते-घूमते गंडकी नदी का किनारा छोड़कर इक्षुमति नदी के किनारे आये है।

उस समय सिंधु देश के राजा रहूगण कपिल मुनि के पास ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए जा रहे थे ।
तत्वज्ञान की विध्ध्या प्राप्त करने के लिए वे पालकी में बैठकर कपिल ऋषि के आश्रम की ओर जाते थे ।
पालकी उठाकर चलने वाले सेवको में से एक कहीं भाग गया  तो राजा ने कहा कि -जो भी मिले उसे पकड़ लाओ।

भरतजी ने पालखी उठाई। रास्ते में चींटी दिखती तो भरतजी  उसे बचने के लिए कूदते थे।
ऐसा करने से पालकी के ऊपरी हिस्से से राजा का सिर टकराता था।
राजा ने सेवको से कहा कि अच्छी तरह से चलाओ। मुझे तकलीफ हो रही है।
सेवको ने कहा हम तो बराबर चला रहे है पर यह नया सेवक ठीक से नहीं चलता है।
कभी रुकता है,कभी दौड़ता है,कभी कूदता है,कभी हँसता है,तो कभी रोता है। वह पागल सा है।

राजा ने व्यंग से  जड़भरतजी से कहा -तू तो दुबला- पतला है। अतः तू ठीक से कैसे चल सकता है?
जड़भरतने राजा के कहने पर ध्यान नहीं दिया।
चींटी को देखकर भरतजी ने छलांग लगाई तो राजा का सिर पालकी के ऊपरी डंडे से फिर टकराया।
राजा ये सहन न कर सके। वे क्रोधित होकर जड़भरत का अपमान करने लगे-अरे तू तो जीते जी मरा हुआ है।
उन्होंने कहा -मै रहूगण राजा हूँ। तुझे दंड दूंगा।

राजा से न तो एक भी पैसा लिया है और नहीं उसका खाया है। फिर भी वह मारने को तैयार हो गया।
उन्हें मारने का राजा को क्या अधिकार है? राजा अभिमानी था।


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