यह ज्ञानी महात्मा है। मैने इसका अपमान करके बड़ी क्षति कर दी है।
यह सोचकर चलती हुई पालकी से कूद पड़ा। जो मारने के लिए तैयार हुआ था वह अब वंदन कर रहा है।
भरतजी तो निर्विकारी है। रहूगण द्वारा अपमान होने पर और सन्मान होने पर
अर्थात दोनों ही अवस्थाओं में वे समस्थिति थे। न क्रोध,न दुःख,न सुख। मान अपमान में
संत की वृत्ति सम ही होती है। वेश द्वारा संत होना सरल है,ह्रदय से संत होना बहुत कठिन है।
रहूगण ने क्षमायाचना की। वह बोला कि आपके अपमान करने वाले का कभी कल्याण नहीं होगा।
राजा रहूगण ने पूछा -यह सांसारिक व्यवहार तो सत्य सा सीखता है, इसे हम मिथ्या कैसे कहे?
यदि वस्तु असत्य हो तो उससे कोई भी क्रिया नहीं हो सकेगी।
जिस प्रकार कि मिथ्या घट से जल लाना शक्य नहीं है।
आगे राजा ने पूछा कि -आप कहते है कि-शरीर को जो दुःख होता है वह आत्मा को नहीं होता।
परन्तु मै तो मानता हूँ कि शरीर को कष्ट होने पर आत्मा को भी कष्ट होता है।
इसका कारण यह है कि इस शरीर का सम्बन्ध इन्द्रियों के साथ है।
इन्द्रियों का सम्बन्ध मन के साथ है,मन का सम्बन्ध बुध्धि के साथ है
और बुध्धि का सम्बन्ध आत्मा के साथ है। अतः जो दुःख शरीर को होता है,वह आत्मा को भी होगा ही।
चूल्हे पर बर्तन में दूध हो और दूध में चावल हो तो चूल्हे का अग्नि से पारस्परिक सम्बन्ध के कारण
दूध में पड़े चावल पक जाते है,वैसे- शरीर को होने वाला दुःख आत्मा को भी होना चाहिए।
जड़भरतजी ने कहा -राजन! जगत मिथ्या है। आत्मा निर्लेप है। अग्नि पर रखे हुए बर्तन के दूध में
चावल पकते है,किन्तु दूध में यदि पत्थर डाला जाये तो वे नहीं पकेंगे क्योंकि वे निर्लेप है।
आत्मा तो सर्वश्रेष्ठ और निर्लेप है।
सन्सार तो केवल मन की कल्पना है।
राजन, मन की विकृति होने पर जीवन भी विकृत हो जाता है।
अतः जो मन सुधर जाए तो आत्मा को मुक्ति मिलेगी।
राजन,यह उपदेश व्यवहारिक मन का है।
माता को अपने संतान का बोझ नहीं सालता,क्योकि वहाँ मन की ममता काम कर रही है।
माता को अपना पुत्र फूल सा लगता है,दूसरो का भारी। इसका कारण मन है।
मन कहता है की यह अपना है और यह पराया।
राजन ये सब तो मन के धर्म है। ये सब मन का खेल है। मन के खेल के कारण ही मुझे मृग होना पड़ा था।
मन के सुधरने पर ही जगत सुधरता है। राजन,तू तो केवल कश्यप देश का राजा है ,
मै तो भरतखण्ड का राजा था। फिर भी मेरी दुर्दशा हुई थी।
विषयासक्त मन जीव को सांसारिक संकट में फंसाता है
और वही मन विषय-रहित होने पर जीव को शांतिमय मोक्षपद की प्राप्ति कराता है।
जीव के सांसारिक बंधन का कारण मन ही है और वही मन के मोक्ष का कारणरूप भी है।
अतः मन को परमात्मा में स्थिर करो।