Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-177-Skandh-6


स्कंध -6- षष्ठ स्कन्ध  -  (पुष्टि लीला)

नरकों का वर्णन सुनकर परीक्षित राजा ने कहा-
महाराज,मुझे ऐसा  मार्ग बताइए कि जिस पर चलने से मुझे इन नरक  में जाना नहीं पड़े।
आपने प्रवृत्तिधर्म,निवृत्तिधर्म आदि की कथा सुनाई,किन्तु इन नरकलोक का वर्णन सुनकर मुझे डर लगता है। नरकलोक में जाने का प्रसंग कभी उपस्थित ही न हो,ऐसा कोई उपाय बताइये।

शुकदेवजी वर्णन करते है -राजन,शास्त्र में प्रत्येक पाप का प्रायश्चित बताया गया है।
पाप का विधिपूर्वक प्रायश्चित किया जाए तो पाप नष्ट हो जाते है।
प्रायश्चित करने के बाद फिर कोई नया पाप नहीं करना चाहिए अन्यथा प्रायश्चित का कोई अर्थ नहीं रहेगा।
दुःख सहकर भी,ईश्वर का भजन करने से पाप जल जाते है।

राजा ने पूछा-विधिपूर्वक प्रायश्चित करने के बाद भी पाप करने की वासना रहती है।
ऐसा कोई उपाय बताइए की पाप करने की वासना ही नहीं रहे।

शुकदेवजी कहते है -वासना अज्ञानमे से जागती है। अज्ञान का नाश न हो तब तक वासना का भी नाश नहीं होता।
अज्ञान का नाश ज्ञान से होता है - इसलिए वासना का नाश करना हो तो ज्ञान को टिकाए रखो।
ज्ञान में स्थिर रहने के लिए ईश्वर के नाम के साथ प्रीति करनी पड़ती है।
ईश्वर और जगत के स्वरुप का ज्ञान होने पर ही वासना विनष्ट होती है।

दूसरे उपायों में तप (मन तथा इन्द्रियों की एकाग्रता),ब्रह्मचर्य,शम (मन का नियमन),
दम (बाह्य इन्द्रियों का नियमन),मन की स्थिरता,दान,सत्य,शौच,यम,नियम-
आदि से पाप की वासना नष्ट होती है।

भगवान को आत्मसमर्पण (भक्ति) करने से और भगवत-भक्तों की सेवा करने से
पापी जनो की ऐसी शुध्धि तपश्चर्या आदिद्वारा नहीं हो पाती।
पापी मनुष्य भक्ति से जैसा पवित्र हो सकता है,वैसा शम,दम,तप आदि से नहीं हो सकता।

राजन तुम अपने प्राण भगवान को अर्पित करो। पाप की वासना चली जायेगी।
भगवान नारायण को जो अपना प्राण अर्पित करता है और जो प्रतिश्वास नारायण मंत्र का जप करता है,
उसको पाप कभी छूता तक नहीं है।
जो अपना प्राण श्रीकृष्ण को अर्पित करता है,उसको  पाप करने की इच्छा कभी नही होती।
प्राणार्पण का अर्थ है प्राण-प्राण से,श्वास-श्वास से ईश्वर के नाम का जप करना।

प्रत्येक कार्य में ईश्वर से सम्बन्ध बनाये रखो।
गीताजी में कहा है -प्रथम भगवान को अर्पण करो और फिर सारे सांसारिक कार्य।
मन को पवित्र करना है तो आँखों को भगवतरूप में स्थिर करो।


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