Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-184


देवों ने पूछा -ऐसा ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण कौन है?
ब्रह्मा ने कहा - प्रजापति त्वष्टा का पुत्र विश्वरूप ब्रह्मनिष्ठ है।
विश्व यानि जगत। विश्व यानि विष्णु भगवान। विश्व के प्रत्येक पदार्थ में जो विष्णु के दर्शन करे,वोही विश्वरूप है।
"विश्वरूप"  सभी जड़-चेतन में ईश्वर की झलक देखता है।

विश्वरूप ब्रह्मज्ञानी और ब्रह्मनिष्ठ था। ब्रह्मदृष्टा ही ब्रह्मोपदेश दे सकता है।
इसी ब्रह्मरूप के सहारे देवो ने दैत्यों का परिभव  किया। (दैत्यों पर विजय प्राप्त की)
ब्रह्मा के आदेश से देवगण विश्वरूप के पास गए। उन्होंने देवो को नारायण-कवच प्रदान किया।
इसी के सहारे इंद्रको  अपना राज्य फिर प्राप्त हुआ,जो उन्होंने बृहस्पति का अपमान करके गवाया था। नारायण-कवच से समर्थ होकर इन्द्र ने असुरो की सेना को पराजित किया।

विश्वरूप का मातृ-कुल- दैत्यकुल में था।पर वे सभी में ब्रह्मनिष्ठा रखते थे।
और,राक्षस-कुलमे भी वे ईश्वर का साक्षात्कार करते थे।
फिर भी, राक्षस-कुल में होने के नाते, वे यज्ञ में दैत्यों को भी आहुति देते थे।  
इन्द्र को यह बात उचित न लगी। इससे इन्द्रादि देवो की "सभी में ब्रह्मभावना" सिध्ध न हुई।
इंद्रने -दैत्यों को यज्ञभाग -नहीं-देने के लिए गुरु विश्वरूप को कहा,पर वे मानते नहीं थे।
अतः उन्होंने (इन्द्र ने)विश्वरूप का मस्तक काट दिया।
पुत्र के वध की बात  सुनकर विश्वरूप के पिता -प्रजापति त्वष्टा को बहुत दुःख हुआ।
उन्होंने संकल्प किया कि मै ऐसा यज्ञ करूँगा कि जिससे इन्द्र को मारने वाला पुत्र पर्याप्त हो।

त्वष्टा प्रजापति ने यज्ञ किया। पर यज्ञ के मन्त्र में भूल होने से इन्द्र  को मारने के बदले  इन्द्र के हाथ से मरने वाला पुत्र उत्पन्न हुआ। मंत्र यह था-इन्द्रशत्रो विवर्धस्व।
इस मन्त्र को बोलते समय हृत्विजों ने”इन्द्र”शब्द को उदात्त कर दिया। ऐसा होने से शब्दार्थ में परिवर्तन हो गया और परिणामतः इन्द्रघातक पुत्र की अपेक्षा इन्द्र द्वारा मरने वाला पुत्र उत्पन्न हो गया।

मन्त्र के उच्चार का बड़ा महत्वहै,यही कारण वेद मंत्रो का अधिकार सभी को नहीं दिया गया है।
केवल सात्विक-विद्वान  ब्राह्मण ही वेद का शुध्ध पाठ कर सकता है।

कर्म की  निंदा भागवत में नहीं है। पर सकाम कर्म के निन्दा भागवत में काफी जगह की गई है।
सकाम कर्म करते समय देव पर जबरदस्ती की जाती है कि तुम्हे मेरा  यह काम करना पड़ेगा।
सकाम कर्म सफल होने से वासना बढ़ती है और निष्फल होने पर मनुष्य नास्तिक होता है।
इसलिए सकाम कर्म की निन्दा की गई है।
भागवतशास्त्र में केवल भक्ति की ही महिमा है।
कर्म करते समय एक ही हेतु रखना है कि मेरा कन्हैया मेरे पर प्रसन्न हो।

प्रजापति त्वष्टा के यज्ञकुण्ड में से असुर निकला। उसका नाम वृत्रासुर रखा। वह देवो को हेरान करने लगा।
घबराकर देव परमात्मा के शरण में गए।
परमात्मा ने कहा-दधीचि ऋषि की अस्थि का वज्र बनाओ-उससे वृत्रासुर मरेगा।
प्रभु ने अपना दिव्य तेज वज्र में निहित किया।
वृत्रासुर को मारने के लिए इन्द्र वज्र लेकर युध्ध करने गए।


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