Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-185



त्रासदायक बहिर्मुख वृत्ति ही  वृत्रासुर है। वृत्ति अन्तर्मुख हो जाये,तभी जीव का ईश्वर से मिलन होता है।
बहिर्मुख-वृत्ति को ज्ञानरूपी वज्र से काट दो।

भागवत में पहले चरित्र कहा जाता है और उपसंहार में सिध्धान्त कहा जाता है।

वृत्रासुर की पुष्टि-भक्ति है, अर्थात अनुग्रह-वृत्ति है।
इन्द्र के हाथ में वज्र है,जिसमे नारायण है,किन्तु इन्द्र को दिखाई नहीं देते।
पर वृत्रासुर को इंद्रके हाथ मे रहा हुआ वज्र में नारायण -दिखाई देते है क्योकि वह पुष्टि-भक्त है।
वह इन्द्र से कहता है -इन्द्र,तुम मुझ पर वज्र का प्रहार करो। चाहे तुम्हारी जीत हो,किन्तु ईश्वर की मुझपर विशेष कृपा है। तुम्हे स्वर्ग का राज्य मिलेगा पर मै तो अपने ठाकुरजी के धाम में जाऊँगा जहाँ मेरा पतन कभी नहीं होगा। तुम्हारा स्वर्ग में पतन हो सकता है,किन्तु मेरा नहीं।
भले ही मुझे लौकिक सुख न मिल सके,किन्तु मै तो प्रभु के धाम में जाऊँगा।

वृत्रासुर श्रीहरि की स्तुति करने लगा। इस स्तुति की वैष्णव ग्रंथो ने खूब प्रशंसा की है।
इस स्तुति के तीसरे श्लोक को कई महात्माओं ने अपना प्रिय श्लोक माना है।

वृत्रासुर की स्तुति में -
  • पहले श्लोक में वृत्रासुरने शरणागति की है और दूसरे श्लोक से उसका वैराग्य प्रकट होता है।
  • तीसरे श्लोक में प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु! आपके दर्शन के लिए मुझे आतुर बनाये।
  • चौथे श्लोक में वृत्रासुर ने सत्संग की अभिलाषा व्यक्त की है। पाप से अगर कोई जन्म मिले -फिर भी उस जन्म में सत्संग मिले -ऐसा माँगा है।

छठ्ठे स्कंध में पुष्टि लीला का वर्णन है। भगवान  ने वृत्रासुर को पुष्टि भक्ति प्रदान की,अर्थात उसके पर कृपा की। इंद्रने वज्र से वृत्रासुर का वध किया। इन्द्र को स्वर्ग का राज्य मिला।
वृत्रासुर के शरीर से निकला हुआ तेज भगवत स्वरुप में लीन हो गया। भगवानने वृत्रासुर का उध्धार किया।

परीक्षित  राजा ने पूछा -
ऐसे महान भक्त होने पर भी उसे राक्षस योनि में क्यों जन्म लेना पड़ा ? उसका पूर्व-वृत्तांत क्या है?
शुकदेवजी वर्णन करते है -
राजन! वृत्रासुर पूर्व जन्म में चित्रकेतु नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम कृतध्युती था। उनके संतान नहीं थे।

चित्रकेतु शब्द का भावार्थ है जो चित्र -विचित्र कल्पनायें करता है,वही चित्रकेतु है। बुध्धि ही कृतध्युति है।
मन अनेक विषयो का विचार करता है उसी विषयाकार स्थिति में चित्रकेतु का जन्म होता है।

एक बार राजा चित्रकेतु के यहाँ अंगिरा ऋषि पधारे। राजा ने उनसे पुत्र मांगा।
अंगिरा ऋषि ने राजा से कहा -पुत्र के माता-पिता को भी कहाँ शांति है। तेरे कोई संतान नहीं है वही अच्छा है।
फिर भी,राजा के मन में संसार के कई चित्र जम गए थे,अतः उसने दुराग्रह किया।
ऋषि की कृपा से उसके घर पुत्र का जन्म हुआ। राजा के और भी रानियाँ थी।
ईर्ष्यावश किसी विमाता ने उसे विष दे दिया,अतः उसकी मृत्यु हो गई।
यह देखकर चित्रकेतु और कृतध्युति रोने लगे।


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