ऐसे शोकके समय वहाँ अंगिरा ऋषि और नारदजी आये। पुत्र की मृत्यु पर राजा-रानी को विलाप करते देखकर नारदजी ने उन्हें उपदेश दिया कि अब पुत्र के लिए रोना व्यर्थ है। अब तुम अपने लिए आँसू बहाओ।
वह पुत्र जहाँ गया है वहाँ से वापस नहीं आएगा।
पुत्र चार प्रकार के बताये है।
(१) शत्रु-पुत्र - पूर्वजन्म का कोई वैरी (शत्रु) सताने के लिए पुत्ररूप से आता है।
(२) ऋणानुबन्धी - पूर्वजन्म का ऋणदाता-या- लेनदार -वह ऋण वसूल करने आता है।
(३) उदासीन पुत्र - शादी न हो तब तक माँ-बाप के साथ रहता है। बादमे वह लेने-देने का सम्बन्ध नहीं रखता।
(४) सेवक पुत्र - पूर्व जन्म में किसी की सेवा की होगी जिससे सेवक बनकर सेवा करने के लिए आता है।
स्कंध पुराण में पुण्डलिक का चरित्र है।
पुत्र को माता-पिता की सेवा किस प्रकार करनी चाहिए इसका वह उत्तम दृष्टांत है।
पुंडलिक ने ईश्वर की सेवा नहीं की थी। केवल माता-पिता की ही सेवा की थी।
फिर भी परमात्मा उसके दर्शन करने -और दर्शन देने आये थे।
पुंडलिक माता-पिता की सेवा हमेशा करता था। वह उनको सर्वस्व मानता था।
माता-पिता की ऐसी सेवा से भगवान प्रसन्न होकर उसके दर्शन के लिए आये।
जब भगवान द्वार पर आये,तब पुंडलिक तो माता-पिता की सेवा में लीन था।
वह गरीब था और छोटी से कुटिया में रहता था। अंदर बैठने के लिए स्थान नहीं था।
भगवान बाहर ही खड़-खड़े पुंडलिक की प्रतीक्षा करने लगे।
माता-पिता की सेवा में व्यस्त पुंडलिक ने भगवान से कहा -माता-पिता की सेवा के फलरूप आप मिले है,
अतः मुझे उनकी सेवा प्रथम करनी है और उसने एक ईंट फेंकते हुए कहा -
मै जब तक माता-पिता की सेवा पूरी ना कर लूँ,तक तक आप इसी पर खड़े रहिए।
ईश्वर साक्षात आये है पर फिर भी पुंडलिक ने माता-पिता की सेवा छोड़ी नहीं है।
ईंट पर भगवान खड़े रहे इसलिए ईंट से विंट बना और उसका नाम पड़ा विठोबा।
खड़े खड़े जब भगवान थक गए तो उन्होंने एक हाथ अपनी कटि पर रखा। आज भी पंढ़रपुर में वे वैसी ही मुद्रा में खड़े है। पुंडलिक ने उन्हें जिस तरह खड़े रहने को कहा था,वैसे ही वे आज भी खड़े हुए है।
कटि पर हाथ रखकर वे बताते है कि मेरे पास आने वाले के लिए,मेरा आसरा लेने वाले के लिए संसार मात्र इतना (कटि तक की ऊँचाई जितना) गहरा है।
नारदजी चित्रकेतु को कहते है -राजन,तुम्हारा शत्रु ही पुत्र बनकर जन्मा था। अच्छा हुआ वह मर गया।
तुम्हे आनंद होना चाहिए। घर,धन,पत्नी,विविध ऐश्वर्य,शब्दादि विषय,राज्य समृध्धि,सेवक,मित्रजन,रिश्तेदार आदि सभी शोक,मोह,भय और दुःख के दाता है। ये सभी नाशवान है।
जिस प्रकार जल के प्रवाह में धूल के कण कभी इकठ्ठे होते है और कभी बिखर जाते है,
उसी प्रकार समय के प्रवाह में संसार के जीव भी इकठ्ठे होते है और बिछड़ जाते है।