एक दृष्टांत सुनो। एक चोर चोरी करने के हेतु से घर से निकला किन्तु मार्ग में पाँव पर लगने से वह गिर पड़ा
और उसका पाँव टूट गया। इस कारन वह चोरी न कर सका। यह भगवान की कृपा थी या अकृपा ?
इसे कृपा समझनी चाहिए। पैर तो टूट गया किन्तु उस कारण वह चोरी न कर सका।
राजन! जैसे तुम होगे,ईश्वर का रूप भी तुम्हे वैसा ही दिखाई देगा। ईश्वर का कोई एक निश्चित रूप नहीं है।
मनुष्य जीव जिस भाव से उन्हें (इश्वरको)देखता है,,उसके लिए वे वैसे ही बन जाते है।
वल्लभाचार्यजी कहते है कि- (ब्रह्म) "ईश्वर" - लीला करते है,अतः वे अनेक रूप धारण करते है।
यह "भक्ति" का सिध्धांत है.
शंकराचार्यजी कहते है कि- ब्रह्म सर्वव्यापक और निर्विकार है। उस ब्रह्म की कोई क्रिया नहीं है।
कलश में रखा हुआ जल तो बाहर निकाला जा सकता है ,किन्तु अंदर समाया हुआ आकाश नहीं।
ऐसे,इश्वर आकाश की तरह है,ईश्वर सर्वत्र है.
ईश्वर की "माया" से इस "क्रिया का अध्यारोप" किया गया है। यह "वेदांत" का सिद्धांत है।
माया की "क्रिया" ईश्वर -या- "अधिष्ठान" में आभासित होती है।
उदारहरण से - मनो कि- गाडी में बैठकर हम अहमदाबाद जा रहे है। हम गाड़ीमें बैठे है,
और गाडी चलनेकी "क्रिया" कर रही है,अहमदाबाद पहुँचने पर हम कहते है कि अहमदाबाद आ गया।
अहमदाबाद तो वहीं पर था -वह तो ना आ शकता है कि ना कही जा शकता है,
पर अहमदाबाद पर "क्रिया का अध्यारोप" हुआ।
ईश्वर निष्क्रिय है। माया के कारण क्रिया का भास होता है।
वास्तव में-तो (ब्रह्म) ईश्वर कुछ भी-नहीं करते है,अतः उनमे विषमता नहीं है।
अग्नि निराकार है,फिर भी जब लकड़ी जलती है तो लकड़ी जैसा ही आकार अग्नि -का भी आभासित होता है।
उपाधि (माया) के कारण आकार (राम-कृष्ण वगैरा देव का) का भास होता है। पर परमात्मा का वास्तविक स्वरुप व्यापक,निराकार और आनन्दरूप है।आचार्य शंकर का यह दिव्य -अद्वैत सिध्धान्त है।
महाप्रभुजी का सिध्धान्त भी दिव्य है। वैष्णव मानते है कि ईश्वर की अक्रियात्मकता की बात बराबर है।
ईश्वर क्रिया तो नहीं पर लीला करते है। ईश्वर निष्क्रिय है यह बात सच है,किन्तु यह उतना ही सच है कि वे लीला भी करते है। जिस क्रिया में क्रियाका अभिमान नहीं होता,वह लीला है। ईश्वर स्वेच्छा से लीला करते है।
“मै करता हूँ” ऐसी भावना के बिना निष्काम भाव से जो क्रिया की जाए,वही लीला है।
कृष्णा की लीला है। उन्हें सुख की इच्छा नहीं है। कन्हैया चोरी करता है किन्तु औरो की भलाई के लिए।
क्रिया बंधन-कारक है,लीला मुक्तिदायक।
जीव जो कुछ करता है,वह क्रिया है ,क्योकि उसकी हर क्रिया के पीछे स्वार्थ,वासना और अभिमान होता है।
दोनों सिध्धान्त सत्य है। ईश्वर निर्विकार निर्विकल्प है और माया क्रिया करती है,यह सिध्धान्त भी दिव्य है। ईश्वर कुछ भी नहीं करते,किन्तु उनमे क्रिया का अध्यारोप किया जाता है। माया के कारण ईश्वर के व्यवहार में विषमता का भास होता है। ईश्वर परिपूर्ण सम है। परमात्मा सम है और जगत विषम।
भगवान दैत्यों को मारते है -पर भगवान के मार में भी प्रेम है।