Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-191



सत्वगुण,रजोगुण और तमोगुण प्रकृति (माया) के गुण है। आत्मा (परमात्मा -ब्रह्म)  के नहीं।
माया (प्रकृति)त्रिगुणात्मिका है। परमात्मा इन तीनो गुणों से पर है।
जीवके उपभोग के लिए शरीर सर्जन की इच्छा जब भगवान करते है तो रजोगुण के बल में वृध्धि करते है।
जीवो के पालन के हेतु से सत्वगुण के बल में और संहारार्थ तमोगुण के बल में वृध्धि  करते है।

शुकदेवजी कहते है -राजन,जो प्रश्न आपने मुझे पूछा,वही प्रश्न आपके पितामह ने नारदजी से पूछा था।
वह कथा ऐसी है कि-
राजसूर्य यज्ञमें  प्रथम श्रीकृष्ण की पूजा की,जो शिशुपाल को मान्य नहीं थी,अतः वह भगवान की निंदा करने लगा। भगवान निंदा सहन करते है किन्तु अंत में उन्होंने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का मस्तक उड़ा दिया।
उसके शरीर से बाहर आया हुआ आत्मतेज द्वारिकाधीश में विलीन हो गया और शिशुपाल को मुक्ति मिली।

यह देखकर युधिष्ठिर को आश्चर्य हुआ। उन्होंने नारदजी से पूछा -भगवान से शत्रुत्व होने पर भी शिशुपाल को सद्गति क्यों प्राप्त हुई? ऐसी सायुज्य गति उसे क्यों मिली?

नारदजी ने कहा -पारसमणि को  लोहे के हथोड़े से मारो -तो पारसमणि टूट जाएगी। पर पारसमणि को हथोड़े पर मारो तो वह सुवर्ण बन जायेगा। उसी प्रकार कोई भी निमित्त से ईश्वर को स्पर्श करो तो ईश्वर उसका कल्याण करता है। राजन,किसी भी भाव से मन,परमात्मा के साथ एकाकार होना चाहिए।
जिस प्रकार भक्ति के द्वारा ईश्वर में मन लगाकर कई मनुष्य परमात्मा की गति को पा सके है ,
वैसे ही काम,द्वेष,भय या स्नेह के द्वारा भगवान से नाता लगाकर कई व्यक्ति सद्गति पा गए है।

कई गोपियाँ कृष्ण को कामभाव से भजती थी। पर वे जिसका ध्यान करती थी वह कृष्ण निष्काम है।
निष्काम कृष्ण का ध्यान करती हुई गोपियाँ भी निष्काम हो गई।
कंस को देवकी का आँठवा पुत्र ही दिखाई देता है। डर के मारे श्रीकृष्ण का चिंतन करते हुए वह तन्मय हुआ है।

नारदजी कहते है कि-
शिशुपाल क्रोध में भी भगवान का चिंतन करता था। इसलिए उसको सद्गति मिली।
हर मनुष्य को कोई भी उपाय से अपना मन भगवन में जोड़ना चाहिए।
शिशुपाल साधारण व्यक्ति  नहीं था,वह विष्णु भगवान का पार्षद था।

फिर,नारदजी ने जय-विजय (विष्णु भगवन के पार्षद) के तीनो जन्मो के कथा संक्षेप में सुनाई।
जय-विजय पहले जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु बने,
दूसरे जन्म में रावण और कुम्भकर्ण बने,और तीसरे जन्म में शिशुपाल और दंतवक्त्र बने।

नारदजी ने हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद की कथा का आरम्भ किया।
दिति के दो पुत्र थे - हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु। वराह भगवान ने हिरण्याक्ष का वध किया।

धर्मराज ने नारदजी से प्रार्थना की -”मै प्रह्लाद की कथा विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ।
वे महान भगवद्भक्त थे,फिर भी हिरण्यकशिपु ने उन्हें क्यों मारना चाहा?”

नारदजी ने कहा - दिति वस्तुतः भेदबुध्धि है।
भेदबुध्धि से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ममता और अहंकार उत्पन्न होते है।

“मै” और “मेरा” भेदबुध्धि की सन्ताने है। सभी दुःखो का मूल भेदबुध्धि है और सभी सुखो का मूल अभेदभाव है। शरीर से नहीं,पर अगर बुध्धि  से यदि अभेद भाव स्थापित हो सके तो सभी के प्रति समबुध्धि हो सकती है।


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