इसमें से किसी ने भी दुःख देना शुरू किया तो उसके प्रति घृणा होने लगेगी।
जगत में स्वार्थ और कपट के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
इस प्रकार की बातें ऋषि याञवल्क्य और मैत्रेयजी के बीच हुई थी।
ऋषि याज्ञवल्क्य ने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय किया।
उन्होंने अपनी पत्नी मैत्रेयी और कात्यायनी से कहा -मै अब सन्यासी होने जा रहा हूँ।
मेरी संपत्ति तुम दोनों में समान रूप से बाँट देता हूँ कि जिससे तुम दोनों के बीच झगड़ा न हो।
मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी।
उसने पति से पूछा -इस धन संपत्ति से क्या मुझे मोक्ष प्राप्त होगा?क्या मै अमर हो सकूंगी?
याज्ञवल्क्य बोले-क्या धन से कभी मोक्ष प्राप्त होता है? हाँ -इससे तुम्हे सुख-सुविधा और भोग के साधन मिलेंगे। अतः तुम आनंद से जीवन बिता सकोगी।
मैत्रयी बोली- जिस धन से मोक्ष की प्राप्ति न हो उसे लेकर मै क्या करू?
मैत्रयी की जिज्ञासा से प्रभावित होकर मुनि ने उसे ब्रह्मविध्या का उपदेश दिया और मोक्ष के साधन बताए।
याज्ञवल्क्य ने कहा -हे मैत्रयी! अपने स्वयं सुख के हेतु से ही घर,पुत्र,पत्नी आदि प्रिय लगते है।
बाकी प्रिय तो आत्मा ही है।
पति से पत्नी का जो प्रेम है वह पति की कामनापूर्ति के लिए नहीं,किन्तु स्वयं की कामनापूर्ति के लिए है।
इसी प्रकार पुत्र का माता-पिता से प्रेम भी अपनी कामनापूर्ति के लिए ही है।
पत्नी पति से प्रेम करती है क्योंकि वह उसका जीवनका पोषण करता है।
पति होगा तो मै जी सकूंगी -इसी आशा और अपेक्षा से पत्नी पति से प्रेम करती है।
पति पत्नी से प्रेम करता है क्योंकि पत्नी उसकी इच्छाएं पूरी करती है।
माता-पिता पुत्र को प्रेम करते है क्योंकि उन्हें आशा है की पुत्र बड़ा होकर उनका पालन करेगा।
मनुष्य कभी मनुष्य के साथ प्रेम नहीं करता पर अपने स्वार्थ के साथ ही प्रेम करता है।
प्रह्लाद ने कहा-घर में अच्छी तरह से भजन नहीं होता। अतः भजन वन में जाकर करना है।
एकांत में जाकर नारायण की आराधना करनी है।
प्रह्लाद ने सुन्दर बात कही पर हिरण्यकशिपु को ठीक नहीं लगी.उन्हें गुस्सा आया और शण्डामर्क को कहा -
तुमने मेरे पुत्र को ऐसा उपदेश दिया। यह कैसी शिक्षा है। देखो - देव भी मुझसे डरते है।
अतः वे सूक्ष्म रूप धारण करके विष्णु का प्रचार करते है,उनसे सावधान रहना।
शण्डामर्क प्रह्लाद को लेकर वहाँ से निकले।रास्ते में प्रह्लाद को पूछा -
मैने जो बाते तुम्हे कभी पढाई ही नहीं,वह तुम अपने पिताजी के समक्ष क्यों बोले?
प्रह्लाद बोले -गुरूजी,जीव न तो किसी के कहने पर भक्ति करता है और न ईश्वर की ओर गति करता है।
प्रभु की कृपा होने से ही भक्ति का रंग लगता है।