Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-200



शुध्ध व्यवहार ही भक्ति है। जिसके व्यव्हार में दंभ है,अभिमान है,उसका व्यव्हार  अशुध्ध है।
ईश्वर की सर्वव्यापकता के अनुभव के बिना व्यवहार-शुध्धि नहीं हो सकती।

व्यवसाय -कारोबार कोई अपराध नहीं है।
सेना भगत नाइ का धंधा करते थे। एक दिन उन्होंने सोचा कि मै लोगो के सिर  से तो मैल का बोझ उतारता हूँ किन्तु अपने मस्तक का मैल -अपनी ही बुध्धि की मलिनता मै अभी तक दूर नहीं कर सका।
और ऐसे ही उन्हों ने ज्ञान पाया। ऐसे कई महापुरुषों ने अपने व्यवसाय में से ही ज्ञान पाया है।

महाभारत में ऐसे कई दृष्टांत है कि जिनमे यह बताया गया  है कि
महाज्ञानी ब्राह्मण भी वैश्य के घर सत्संग के हेतु से जाते थे।

जांजलि ऋषि को अपने ज्ञान पर जब अभिमान हुआ,तो उन्होंने आकाशवाणी सुनी कि
'तुम तुलाधार वैश्य से जाकर मिलो।'
ऋषि वहाँ  गए। बातो ही बातों से उन्हें ज्ञात हुआ कि वे भी ज्ञानी है।
तो उन्होंने तुलाधार से पूछा कि उन्होंने ऐसा ज्ञान कहाँ से पाया?
तुलाधार ने कहा -वैसे तो मेरे माता-पिता ब्राह्मण है,फिर भी बहुत कुछ ज्ञान मुझे अपने व्यवसाय से ही मिला है। मेरा व्यवसाय ही मेरा गुरु है। तुला की डंडी की भाँति मैने अपने मन-बुध्धि को सरल और समान बना लिया है। वैश्य लाभ न कमाए तो अपने परिवार का परिपालन कैसे करेगा?
नफा कमाना वैसे तो अपराध नहीं है किन्तु अयोग्य नफा लेना गुनाह है।

नृसिंह भगवान आकाशसे नहीं,स्तम्भ (जड़) में से प्रकट हुए थे।
मात्र चेतन में ही नहीं,जड़ में भी ईश्वर के दर्शन करो। ईश्वर जड़ और चेतन दोनों में है।
लौकिक दृष्टि से पृथ्वी जड़ है किन्तु इसमें में ईश्वर की भावना रखनी चाहिए।

एक महात्मा के दो शिष्य थे। वे दोनों पढ़े लिखे और कथाकार थे।
जब महात्मा की मृत्यु निकट आई तो उनकी गद्दी के लिए दोनों में झगड़ा शुरू हो गया।
महात्मा भी सोचने लगे कि किसे वारिस बनाया जाये?
आखिर उन्होंने दो फल मंगवाकर दोनों को एक-एक देते हुए कहा कि इस फल को ऐसे स्थान पर जाकर खाना,
जहाँ तुम्हे देखने वाला कोई भी न हो। वे दोनों फल लेकर चले गए।

एक शिष्य ने सोचा कि मै कमरा बंद करके खा लूँ,क्योकि वहाँ मुझे कौन देखने वाला है ?
और उसने कमरा बंद करके फल खा लिया।

दूसरा शिष्य पूरा दिन इधर-उधर घूमता-फिरता रहा किन्तु उसे एक भी स्थान ऐसा नहीं मिला जहॉ कोई न हो।
वह जहाँ भी गया वहाँ उसे परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव हुआ। इस दूसरे  शिष्य ने ज्ञान को पचाया था।
वह फल खाए बिना वापस आया। गुरूजी ने दूसरे शिष्य को अपना वारिस बनाया।
पहला शिष्य कथा करता था पर ईश्वर के व्यापक स्वरुप को समझ नहीं पाया था ।


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