Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-204



श्रध्धा -अंधश्रध्धा तो हमारे व्यवहारिक जीवन में भी  है।
कई बार डाक्टर से काम बिगड़ जाता है,फिर भी हम उसकी बातों में श्रध्धा रखते है।  
उनसे हम नहीं कहते कि चमत्कार दिखाओ।
डॉक्टर  के प्रति श्रध्धा नहीं होगी -और -वह दवाई नहीं देगा,और दवाई के बिना बीमारी नहीं मिटेगी।

इसी  प्रकार सेवा-मार्ग में भी प्रथम श्रध्धा  की आवश्यकता है। परमार्थ में श्रध्धा की आवश्यक है।
आज के शिक्षित लोग कुतर्क  करते है कि भगवान आहार तो नहीं करते,फिर भी लोग उन्हें क्यों भोग लगाते है?

परमात्मा रस -स्वरुप है।  रस -भोक्ता है। भगवान को भोग लगाने से वे सारतत्व का आहार कर लेते है।  
इसलिए भोग सामग्री कम  नहीं होती।
यदि वे सचमुच भोजन करने लगे,तो इस कलियुग में कोई भोग लगाएगा कि  नहीं ,इसमें संदेह है !!

अशिक्षित लोग श्रध्धा रखते है। पर शिक्षित लोग श्रध्धा में नहीं मानते इसलिए कुतर्क करते है।
भक्ति में प्रथम श्रध्धा रखनी पड़ती है। श्रध्धा बिना भक्ति नहीं होती। भक्ति  बढ़ने पर अनुभव होता है।
और वह  अनुभव ही सबसे बड़ा चमत्कार है। प्रेम से नमस्कार करने से चमत्कार देखा जा सकता है।

गजेन्द्र हाथी पशु था। उसने न तो तपश्चर्या की थी न तो अष्टांग योग की साधना।
पर उसकी प्रेमभरी पुकार सुनकर,उसकी भक्ति के कारण भगवान उस पर प्रसन्न हुए थे।
ध्रुव की क्या आयु थी? गजेन्द्र में कहाँ  विध्या थी। विदुर की कौन सी जाति  थी?
सुदामा के पास कहाँ धन था? कुब्जा के पास कहाँ रूप था?
फिर भी यह सब भगवान को पा सके थे। भक्तिप्रिय ईश्वर केवल गुणों से नहीं-पर भक्ति से प्रसन्न होते है।

सभी साधन और साधना का फल है कृष्ण-प्रेम।
जो साधना प्रभु-प्रेम ने जग सके,उस साधना की कोई कीमत नहीं है।
प्रभु को प्रसन्न करने के दो साधन है -सेवा और स्मरण।
सेवा और स्मरण में धन नहीं,मन प्रधान है। स्नेह ही मुख्य चीज है।

श्री गोसाईंजी महाराज की “दो सौ बावन बैष्णव की कहानी  “ में पद्मनाभदास की कथा है।
वे गरीब थे,लिहाजा भगवान को चने के छिलके भोग में देते थे। ठाकुरजी उसमे भी मिठास का अनुभव करते है। भगवान यह नहीं देखते कि कोई उन्हें क्या देता है ? वे तो मात्र यह देखते है कि किस भाव से दिया गया है।
सेवा,स्मरण से भगवान सेवकाधीन बन जाते है।

एकनाथ महाराज सारा दिन अविरत प्रभु-सेवा और भजन करते थे,सो थक जाते थे।
उनकी ऐसी अविराम सेवा से प्रभु दयार्द्र हुए। वे सोचने लगे,मेरा भक्त मेरे लिए कितना श्रम करता है।
चलो मै उसकी कुछ सहायता करू और उसका श्रम कम होए।
यह सोचकर भगवान ने ब्राह्मण का रूप धारण करके एकनाथ के पास आये
और बोले-भाई क्या मुझे अपना सेवक रखोगे?
एकनाथ बोले -मुझे कहाँ नौकर की जरूरत हे?मै  तो अपना सारा दिन प्रभु की सेवा औए स्मरण में बीताता हूँ।
भगवान-मै तुम्हे ठाकुरजी की सेवा में सहायता करूँगा। एकनाथने कहा -जैसी तुम्हारी इच्छा।
भगवान बारह वर्ष “शिखंडयो” नाम धारण करके-एकनाथ के यहां नौकर बनकर रहे है।
जिसे (ईश्वरको) चन्दन का तिलक लगाया  जाता है,वह (ईशवर) स्वयं ही वहां चन्दन घिसने लगे।
“तुलसीदास चन्दन घिसे,तिलक लेत रघुवीर” वाली बात उलटी हो गई। यह तो है भक्ति की महिमा।


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