एक बार सत्यभामा को अभिमान हुआ कि वह श्रीकृष्ण को सबसे प्रिय है।
नारदजी घूमते-घूमते वहाँ आ पहुँचे,और सत्यभामा ने उनसे कहा -
मुझे हर जन्म में यही पति मिले ऐसा कोई उपाय बताए।
नारदजी-आप जिस चीज़ का दान करेंगी,वाही अगले जन्म में आपको प्राप्त होगी।
अतः यदि आप श्रीकृष्णको अगले जन्म में पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हो तो उनका दान कीजिए।
ऐसा दान देने के लिए सत्यभामा तैयार हो गई किन्तु ऐसे दान को कौन स्वीकार करता?
अंत में नारदजी दान लेने के लिए तैयार हुए। श्रीकृष्ण को दान में पाकर नारदजी उन्हें अपने साथ ले जाने लगे।
सत्यभामा ने पूछा- मेरे पति को आप कहाँ ले जा रहे है?
नारदजी-आपने अभी-अभी तो मुझे उनका दान दिया है,अतः वे मेरे हो गए।
दान में दी हुई वस्तु दान लेने वाले की ही हो जाती है। अब कृष्ण पर मेरा अधिकार है।
सत्यभामा को अपनी भूल समझ में आई। वे श्रीकृष्ण को मांगने लगी और नारदजी इंकार करने लगे।
अन्त में नारदजी ने कहा कि श्रीकृष्ण का जितना वज़न है,उतना सुवर्ण मुझे दो,तो मै इन्हें लौटा दू।
सत्यभामा खुश हो गई। श्रीकृष्ण को तुला में बिठाये और सत्यभामा ने उनके पास जितने गहनें थे सब तुला में रखे। पर श्रीकृष्ण का पल्ला अभी भारी है। सत्यभामा का अभिमाना उतारने की यह लीला थी। सब रानियाँ सोच में डूब गई कि अब क्या किया जाये। सत्यभामा ने कृष्ण का दान करके अनर्थ कर डाला।
अंत में सत्यभामा ने रुक्मणी का आसरा लिया। रुक्मणी सारा भेद समझ गई।
रुक्मणि ने अन्य रानियों से कहा -भगवान की तुला क्या सुवर्ण से हो सकती है ?
उन्होंने पल्ले में प्रेम से एक तुलसीदल रख दिया,तो भगवान की तुला पूर्ण हो गई।
रुक्मणी ने पूरे प्रेम से तुलसीदल अर्पण किया था,अतः भगवान का पल्ला उप्पर उठ गया।
इसी प्रकार बोडाणा ले लिए भगवान सवा वाल(एक धान्य विशेष) के बराबर हो गए थे। तब कहते है कि-
“धन्य धन्य बोडाणा की नारी सवा बाल भए बनमाली”
ईश्वर कभी ऐसी इच्छा नहीं करते कि कोई उनकी सेवा करे।
वे तो निज लाभ से परिपूर्ण है,उन्हें किसी भी चीज़ की अपेक्षा नहीं है। वे स्वयं आनन्दरूप है।
उन्हें ऐसी इच्छा नहीं कि वैष्णव उन्हें भोग लगाए। उन्हें भोजन की इच्छा नहीं होती। वे तो निष्काम है।
फिर भी,भक्तों को प्रसन्न रखने के लिए ही वे भोजन करते है।
ईश्वर का दिया हुआ उन्हें अर्पित करना है। तुम उन्हें अर्पित करोगे तो वे कई गुना बढाकर वापस लौटाएंगे।
जीव तो कोई भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं कर सकता,सभी कुछ श्रीकृष्ण का ही बनाया हुआ है।
दीपक जलने से या आरती करने से भगवान के घर प्रकाश नहीं होगा।
यह तो तुम्हारे ही ह्रदय में प्रकाश करने का लिए है। ईश्वर तो वैसे ही स्वयंप्रकाशी है।
सेवा करने से सेवक को सुख होता है। भगवान को तो कैसे सुख मिलेगा? वे तो परमानन्द स्वरुप है।