इस प्रेम में तो ऐसा बल है कि निष्काम को सकाम और निराकार को साकार बनना पड़ता है।
ईश्वर जीव से प्रेम की मांग करते है। प्रेम करने योग्य तो मात्र ईश्वर ही है।
सेवा करते करते यदि ह्रदय आद्र हो जाए और आँखों ने अश्रुधारा बाह निकले तो मानो कि सेवा सच्ची है।
ज्ञान से वस्तु के स्वरुप का,पदार्थ का ज्ञान होता है,किन्तु ज्ञान से उस वस्तु के स्वरुप में परिवर्तन नहीं हो सकता। प्रेम में,भक्ति में जड़मूर्ति को भी चेतनमय बना देने की शक्ति है।
ईश्वर को थोडा भी दोगे,तो वे तुम्हे कई गुना बढाकर वापस देगा।
प्रह्लादजी स्तुति करते है -प्रभु,आपके मांगलिक सद्गुणों का वर्णन मै कैसे करू?
ब्रह्मादि देव भी आपकी लीला का पार नहीं पा सकते। आप शान्त हो जाइए।
मेरे पिता तो जगत के लिए कंटक के समान थे,आपने वध किया,वह अच्छा किया।
आपके इस भयंकर रूप को देखकर देवों को भी डर लग रहा है। किन्तु मुझे कोई भय नहीं है। मुझे तो इस संसार का भय है। मुझे तो मात्र इस असह्य और उग्र संसारचक्र के पिस जाने का भय है। मेरे कर्मपाशों से बांधकर मुझे इन भयंकर जंतुओं के बीच छोड़ दिया गया है। आप प्रसन्नता हो.
हे नाथ,सब जीवों के एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप ऐसे अपने चरणों में,आप मुझे कब बुलाएंगे
आप ही सभी के आश्रय है। आप ही हमारे प्रिय सुहृद है। आप ही सभी के परमाराध्य है।
आपकी लीला-कथा का गान करता हुआ मै बड़ी सरलता से इस संसार की कठिनाइयों को पार कर जाऊँगा।
हे भगवान,जिन्हे प्राप्त करने के लिए संसारी लोग उत्सुक रहते है ,वह स्वर्ग में प्राप्त सभी लोकपालको की आयु,लक्ष्मी और वैभव मैने देख लिया। मेरे पिता के पास किस वस्तु की कमी थी?
आँखों का एक ही संकेत सभी कुछ ले देने के लिए समर्थ था।
स्वर्ग की सारी संपत्ति भी उनको प्राप्त थी ,फिर भी उनका नाश हो गया।
भोगोपभोग के ऐसे विनाशकारी परिणाम मैने देख लिए।
अतः मै भोगोपभोग,लक्ष्मी,ऐश्वर्य,इन्द्रिय-भोग्य वस्तु या ब्रह्मा का वैभव आदि की इच्छा नहीं करता हूँ।
मे तो कहता हूँ -भगवान,यह संसार तो अन्धकार से भरा हुआ एक ऐसा कुआँ है,जिसमे काटने के लिए हमेशा तत्पर कालसर्प घूमता रहता है। ऐसे कुँए में विषय-भोगो की इच्छा रखने वाले मनुष्य फँसे हुए है।
हे वैंकुंठनाथ,मै यह सब जानता हूँ,फिर भी मेरा मन आपकी लीलाओं की कथा में नहीं लगता।
मेरे मन की दुर्दशा हो गई है। वह पापवासना से दूषित हो गया है और स्वयं भी दुष्ट है।
मेरे मन की दुर्दशा हो गई है। वह पापवासना से दूषित हो गया है और स्वयं भी दुष्ट है।
वह कामवासना के लिए आतुर रहता है। वह हर्ष-शोक,लोक-परलोक,धन,पत्नी,पुत्र आदि की चिंता में ही
डूबा रहता है। मन इधर-उधर भटकता रहता है और उसे नियंत्रित करना बड़ा कठिन है।
वह कामातुर है,भयत्रस्त है और भांति-भांति की इच्छाओं से दूषित और दुखी है।
आप कहते हो कि इन्द्रियों को काबू में रखो -पर आपने इस संसार में विषयो का आकर्षण रचा है कि बड़े बड़े ज्ञानी भी भटक जाते है। माया ने इस संसार में विषयों का ऐसा आकर्षण रचा हुआ है कि बहुत से विद्वान भी भटक जाते है। संसार का सुख वैसे तो विष है,फिर भी अमृत जैसा लगता है।
जगत में ऐसे सुन्दर पदार्थों को उत्पन्न ही क्यों किया? इन्ही से तो इन्द्रियाँ ललचाती है और फंसती है।
नृसिंह भगवान प्रह्लाद को समझते है -
जीवों को सुखी करने के हेतु से मैंने संसार के सारे पदार्थ उत्पन्न किये है।
मनुष्य यदि अमर्यादपूर्वक,आसक्तिपूर्वक पदार्थों का उपभोग करे और दुःखी होता रहे,
तो इसमें मेरा क्या दोष? मर्यादापूर्वक पदार्थो को और विषयो को भोगने वाला मनुष्य सुखी होता है।