Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-220



गजेन्द्र आद्र होकर श्री हरि की स्तुति करता है-कि-
"जो लोग शरीर ,पुत्र,मित्र,घर,संपत्ति और स्वजनो में आसक्त है,उनको तुम्हारी प्राप्ति होनी अति कठिन है,
क्योंकि तुम स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हो। जीवन्मुक्त पुरुष अपने ह्रदय में तुम्हारा निरंतर चिंतन करते है। सर्वज्ञानस्वरूप,सर्वसमर्थ परमात्मा को मे नमस्कार करता हूँ।
हे नाथ,मुझ पर कृपा करो। शरणागत की रक्षा करने वाले,हे प्रभु,मेरी रक्षा करो। मै तुम्हारी शरण में आया हूँ। "

जब काल पकड़ता है,तब जीव भय से व्याकुल होकर घबराता है,ऐसा सोचकर गजेन्द्र जैसे आर्द्र बनकर गजेन्द्र मोक्ष का पाठ करोगे तो जीवन सुधरेगा और अंतकाल में परमात्मा लेने आएंगे।  

गजेन्द्र की अरज  सुनकर निराधार के आधार -द्वारकानाथ दौड़ते हुए आए है।
गजेन्द्र ने भगवान को आते हुए देखा,तो उसने सरोवर में से एक कमल का फूल लेकर भगवान को अर्पित किया।

तुलसी और कमल परमात्मा को अति प्रिय है। परमात्मा की नाभि से कमल उत्पन्न हुआ है। कमल ब्रह्मा का सर्जन नहीं है। भगवान ने कमल के फूल को स्वीकार किया और अपने सुदर्शन चक्र से मगर का वध किया।

ज्ञानचक्र से काल का नाश होता है। ऐसा ज्ञान होने से सब मे भगवान दिखाई देते है।
जिसे ब्रह्मदृष्टि प्राप्त होती है,उसे  सभी स्थान और चीज में प्रभु के दर्शन होते है।
अज्ञानी के लिए संसार बाधक है,ज्ञानी के लिए जगत नहीं रहता। अज्ञानकी पकड़ से छूटना है।

पूर्वजन्म में गजेन्द्र इन्द्रधुयम्न नाम का राजा था। वह ध्यान में बैठा था कि वहाँ अगत्स्य मुनि आए।
राजा ने उठकर उनका स्वागत नहीं किया तो मुनि यह व्यवहार अपमानजनक लगा।
उन्होंने राजा को शाप दिया,कि मेरे आने से तू जड़ की तरह बैठा रहा,अतः अगले जन्म में तुझे पशु का अवतार प्राप्त होगा। पूर्वजन्म में गजेन्द्र (इन्द्रधुयम्न) ने बहुत भक्ति की थी,
अतः गजेन्द्रयोनि में भी उसे अंतकाल में प्रभु का स्मरण हुआ और उसका उध्धार हुआ।
जो भी संस्कार मन में दृढ़ होकर जम  जाते है,वे अंतकाल में और अगले जन्म में काम आते है।

छठे अर्थात चाक्षुष मन्वन्तर में समुद्र में से जो अमृत मिला,उसे भगवान ने देवों को पिलाया।
इस मन्वन्तर में भगवान ने अजित के नाम से अवतार लिया।
समुद्र मंथन करके अमृत निकाला।
स्वयं विष्णु ने ही कच्छपरूप धारण करके मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया था।

परीक्षित राजा ने पूछा -भगवान ने समुद्रमंथन कैसे किया? कच्छरूप लेकर मंदराचल को अपनी पीठ पर क्यों धारण किया?उन्होंने देवताओं को कैसे अमृत पिलाया?इस समुद्रमंथन की कथा मुझे सुनाइए।

शुकदेवजी वर्णन करते है -एक बार इन्द्र घूमने निकला। रास्ते में दुर्वासा मिले। उनके हाथ में प्रभु की दी हुई प्रसाद की माला थी। दुर्वासा ने वह माला इन्द्र को दी। इन्द्र ने संपत्ति के गर्व में उस माला को हाथी की सूंढ़ पर फेंकी।
हाथी की सूंढ़ से गिरकर उसके पाँव पर पड़ी और हाथी उसे कुचलने लगा।
दुर्वासा को लगा कि इन्द्र ने मेरा और माला दोनों का अपमान किया है।
उन्होंने इन्द्र को शाप दिया कि तू दरिद्र होगा।


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