जिस घर में भिखारी का अपमान हो,सांयकाल पर घर में झगड़ा हो,सूर्योदय के बाद बिस्तर में लेटे रहना,
यह सब लक्ष्मीजी का अपमान है। लक्ष्मीजी वहाँ नहीं रहती।
इन्द्र अति संपत्ति के मद से विवेकभ्रष्ट हो गया था। अति संपत्ति और सन्मति साथ नहीं रह सकती।
दरिद्र होने के बाद ही अक्कल ठिकाने पर आती है।
इन्द्र दरिद्र हो गया और स्वर्ग का राज्य दैत्यों को मिला।
देवगण आसरा लेने के लिए भगवान के पास गए और कहा कि -कुछ ऐसा उपाय कीजिये जिससे हमे अपना राज्य वापस मिले। भगवान ने समुद्रमंथन की आज्ञा दी और कहा कि -
इससे प्राप्त होने वाला अमृत तुम्हे पिलाकर तुम्हे अमर बनाऊँगा। यह काम आसान नहीं है।
दैत्यों के साथ मैत्री करके उनकी प्रशंसा करना। वे अभिमानी है,अतः अपनी प्रशंसा सुनकर तुम्हारे मित्र बन जायेंगे।
देव और दैत्य अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र-मंथन करने लगे।
मंदराचल पर्वत को मथानी और वासुकि नाग का रस्सा बनाया गया।
इस कथन का रहस्य ऐसा है -
संसार समुद्र है। अपने जीवन का मंथन करो समुद्र मंथन जीवन का ही मंथन है।
संसार-समुद्र का मंथन करके ज्ञान और भक्तिरूपी अमृत का पान करने वाला अमर हो जाता है।
मन ही मंदराचल पर्वत है और प्रेम-डोर ही वासुकि नाग है। मन को मंदराचल पर्वत की भाँति स्थिर करो।
जब मंदराचल पर्वत समुद्र में डूबने लगा तो भगवान ने कूर्मावतार लेकर अपनी पीठ पर उसे धारण कर लिया। मन-रूपी मंदराचल किसी भी आधार के बिना स्थिर नहीं रहता। उसे भगवद-स्वरुप भगवद नाम का आधार चाहिए। आधार होगा तो समुद्र में नहीं डूबोगे।
समुद्र-मंथन करते सबसे पहले ज़हर निकला।
मन को स्थिर करके प्रभु के पीछे लगोगे तो पहले विष मिलेगा। उसके सहन करने के बाद अमृत मिलेगा। महापरुरुषो ने कष्टरूपी विष का पान किया था,दुखों को सहन किया था,अतः उन्हें ज्ञानामृत मिला।
निंदा और कर्कश वाणी विष है। निंदा रूपी विष को सह लोगे तो अमृत मिलेगा।
प्रतिकूल परिस्थिति और दुःख भी विष है।
विष की दुर्गन्ध देवों से सही न गई,तो प्रभु ने विषपान के लिए शंकर को बुलाया।
जिसके सिर पर ज्ञानगंगा होती है,वह विष को पचा सकता है।
इस संसार का विष सभी को जलाता है,किन्तु ज्ञानगंगाधारी को नहीं जला सकता।
शिवजी की पूजा विष सहन करने की शक्ति देती है।
शिवजी ज्ञान देते है,अतः विष सहन करने की शक्ति मिलती है।
देवों ने शिवजी से विष पी जाने की प्रार्थना की।
शिवजी सोचते है -यदि सबका कल्याण हो सकता है तो भले ही मुझे दुःख क्यों न झेलना पड़े।
अन्य को सुखी करने के लिए स्वयं दुःख सह ले,वही शिव है।
स्वयं को सुखी करने के लिए दूसरो को दुखी करे,वह जीव है।