विष की असर से शिवजी का कंठ नीला हो गया इसलिए उनका नाम पड़ा नीलकंठ।
यह बताता है कि -कोई निंदा करे तो निंदारूपी जहर को ध्यान में न लेना,पेट में नहीं उतारना है।
पेट में जहर रखने से भक्ति नहीं हो सकती।
भागवत में नहीं लिखा है पर किसी महात्मा ने कहा है कि जब शिवजी विषपान कर रहे थे तो -
कुछ छींटे निचे गिरे थे और वह विष के छींटे कुछ जीवों की आँखों में और पेट में पड़े थे।
आँख और पेट में जहर मत रखो। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा होता है कि दूसरो को सुखी देख खुद दुःखी होते है। ऐसा मत करो,आँख में हमेशा प्रेम रखना है।
जगत के कल्याण के हेतु से,शंकर ने विषपान किया। साधु-पुरुष का वर्तन भी ऐसा ही होता है।
सज्जन पुरुष अपने प्राण का बलिदान देकर अन्य के प्राण की रक्षा करते है।
जबकि संसार के मानव , मोह-माया से लिपट कर पारस्परिक वैर भावना बढ़ाते है।
तुलसीदासजी साधु पुरुष का वर्णन करते हुए कहते है -
सन्त ह्रदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह पर कहे न जाना।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। परदुःख द्रवः संत सुपुनीता।
परहित सरिस धर्म नहि भाई। परपीड़ा सैम नहीं अप्राध्माई।
विष का जलन अधिक हो जाये तो भगवान के नाम का कीर्तन करो।
शिवजी भी इसीसे भगवान का नाम लेकर विष पी गए थे। भगवान का नाम विष को भी अमृत बना देता है।
सोलहवें साल से जीवनमें मंथन शुरू होता है,मन में वासना का विष उत्पन्न होता है।
उस समय मन को मंदराचल-सा स्थिर कर लोगे,तो उस मनोमंथन में से,संसार में भक्ति और ज्ञानरूपी अमृत
प्राप्त होगा। और मानव अमर हो जायेगा।
मंथन करते-करते गौमाता कामधेनु बाहर आई। गौमाता कामधेनु का दान ब्राह्मणों को दिया गया।
कामधेनु संतोष का प्रतिक है। जिसके आँगन में सन्तोषरूपी गाय है,वह ब्राह्मण ब्रह्मनिष्ठ है।
ब्राह्मण का जीवन अति सात्विक होना चाहिए।
आगे जाकर उच्चैः श्रवा नामक घोडा निकला। इसे देखकर दैत्यों का मन ललचाया तो उन्हें दे दिया गया।
श्रव शब्द का अर्थ है कीर्ति। उच्चैः श्रवा कीर्ति का प्रतीक है। मन को जो पर्वत-सा स्थिर कर पायेगा उसे जगत में कीर्ति और लक्ष्मी मिलेगी। जिसका मन कीर्ति में फँसता है,उसे अमृत नहीं मिल पाता।
दैत्यों ने उच्चैःश्रवा लिया,अतः उन्हें अमृत नहीं मिला।