Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-223



उसके बाद ऐरावत हाथी निकला। हाथी सूक्ष्म-दृष्टी का प्रतिक है। हाथी की आँख सूक्ष्म है।
सूक्ष्म दृष्टी -देव दृष्टी है। देवों को यह हाथी दिया गया।
मंथन फिर शुरू हुआ। साक्षात लक्ष्मीजी प्रकट हुई। देवों को लगा कि ये हमे मिले तो अच्छा है।
किन्तु माँगनेवालो की इच्छा करने वालो को लक्ष्मीजी नहीं मिलती।

लक्ष्मीजी को सिंहासन पर बिठाया गया। लक्ष्मीजी सोचने लगी कि किसके गले में वरमाला पहनाऊ।
सर्वगुण संपन्न पुरुष की खोज में निकली। उन्हें ऋषियों के मंडप में लाया गया।
लक्ष्मीजी सोचते है कि-ये ऋषि ज्ञानी और तपस्वी है पर क्रोधी अधिक है। लक्ष्मीजी का  मन नहीं माना।

आगे देवगण विराजमान है। वे क्रोधी नहीं है,किन्तु अतिशय कामी है। अतः वे आगे चली।
वहाँ परशुरामजी बैठे थे। वे जितेन्द्रिय है,कामी और क्रोधी नहीं  है किन्तु निष्ठुर है।
क्षत्रियो के  छोटे बालकों को भी मारते है,अतः उन्हें पसंद नहीं है।

आगे मार्कण्डेय मुनि बैठे थे। वे सुन्दर और दीर्घार्युषि है,किन्तु भरी सभा में आँखे मूंद कर बैठे है।
लक्ष्मीजी की ओर  उन्होंने  देखा तक नहीं। लक्ष्मीजी ने सोचा कि ये महात्मा अनासक्त है।
मेरी ओर देखते तक नहीं है। मै यदि इन्हे वरूंगी तो भविष्य में शायद ये मेरी ओर ध्यान नहीं देंगे।
मार्कण्डेय ने कहा -तुझे कैसे सुन्दर मानू ? तुझसे तो कन्हैया अधिक सुन्दर है।
जब तक वे नहीं अपनाएंगे मे तेरा दर्शन नहीं करूँगा। मुझे लक्ष्मी का मोह नहीं है।

जब लक्ष्मी का मोह छूटता है,तब प्रभु भक्ति का प्रारम्भ होता है।
तुकाराम के दारिद्र्य को देखकर शिवजी महाराज ने उनके लिए सुवर्ण से भरा थाल भेजा।
तुकाराम ने कहा -जब मै लक्ष्मी के पीछे भाग रहा था,तब में मुझे नहीं मिली।
अब मेरा चित्त भगवान में लगा है तो वह बाधा डालने आ रही है। उन्होंने वह सुवर्ण भरा थल वापस लौटा दिया।

सारा दिन भजन करने वाले और कुछ उध्ध्यम न करने वाले को लक्ष्मी नहीं मिलती।

आगे चली तो वहाँ  शंकर विराजमान थे। शंकर कामी नहीं है और क्रोधी भी नहीं है। लक्ष्मीजी ने शंकर को देखा। उनका स्वभाव मंगल है,किन्तु वेश अमंगल है।
आगे नारायण बैठे है,लक्ष्मीजी ने सोचा कि वे ही उत्तम है।
जिसका ह्रदय कोमल और मृदु होता है उसी के पास लक्ष्मीजी आती है। उन्होंने नारायण को वरमाला पहना दी।

अब तक नारायण की दृष्टी धरती की ओर थी। लक्ष्मीजी ने वर-माला पहनाई तो वे इधर-उधर देखने लगे। सामान्यतः धन मिलने के बाद लोग चारों ओर नहीं देखते है।यह ठीक नहीं है।
धनवानों को चारों ओर देखकर सभी दिन-दुःखी का दुःख दूर करना चाहिए।

समुद्रमंथन का काम आगे चलने लगा। दैत्यों ने सोचा कि एक बार घोडा पाया और सभी कुछ देवताओं को मिल गया। अब तो जो कुछ निकलेगा,वह हम ही लेंगे। इस बार मदिरा निकली।
दैत्यों को मदिरा मिली। खूब पियो उर मज़ा करो।
मंथन आगे चला तो भगवान धन्वन्तरि अमृत-कुम्भ लेकर प्रकट हुए। दैत्यों ने वह कुम्भ छीन लीया,
तो देवगन दुःख के मारे भगवान के शरण में गए। तो भगवान ने कहा -अब शक्ति नहीं युक्ति से काम लेना होगा।

अमृत के लिए दैत्य अंदर ही अंदर लड़ने लगे। लड़ने  से किसी को भी अमृत नहीं मिलता।
झगड़ते हुए दैत्यों के बीच में भगवान मोहिनी का रूप लेकर प्रकट हुए। मोहिनी का रूप देखकर दैत्य चकरा गए। मोहिनी मोह का स्वरुप है। जो मोहिनी से आसक्त है उसे अमृत नहीं मिलता।
संसारस्वरूप में आसक्ति वह माया है,ईश्वर के स्वरुप में आसक्ति वह भक्ति है।


   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE