संसार की मोहिनी में फंसोगे तो भक्तिरूपी अमृत कभी नहीं मिलेगा।
मोहिनी ने सारा अमृत देवों को पिला दिया और कुम्भ दैत्यों के सामने रख दिया।
दैत्यों ने चिल्लाना शुरू किया- कपट-कपट. विष्णु साड़ी पहनकर आये और हम उन्हें पहचान नहीं पाये।
बादमे -देव और दानवो के बीच युध्ध हुआ और दैत्य पराजित हुए।
फिर नारदजी फिरते-फिरते कैलास में आये है।
उन्होंने शिवजी से पूछा-क्या आपने नारायण मोहिनी के दर्शन किये? शिवजी ने कहा-नहीं.
तब,शिवजी मोहिनी स्वरुप का दर्शन करने के लिए सपरिवार वैंकुंठ में पधारे।
नारायण ने शिवजी का स्वागत करते हुए आगमन का कारण पूछा।
शिवजी ने कहा कि उनके दर्शन के लिए आये है। भगवान ने कहा कि मै तो सामने उपस्थित हूँ।
शिवजी न कहा - मै आपका मोहिनी स्वरुप का दर्शन करना चाहता हूँ।
मैंने आपके सभी जन्म देखे है,अतः मोहिनी अवतार भी देखना चाहता हूँ।
प्रभुने लीला रची। एक सुन्दर बाग़ और उसमे पुष्पगुच्छ खेलती हुई युवती।
शिवजी ने यह देखा तो पार्वती की उपस्थिति भी भूल गए। भगवान की माया से शंकर मोहित हो गए।
जिसके सिर पर ज्ञानगंगा और जिसका वाहन ज्ञान है,उसे क्या काम प्रभावित कर सकता है?
किन्तु शिवजी यह बताना चाहते है कि भगवान की माया को पार करना बहुत कठिन है।
शिवजी देहभान भूल गए। शिवजी सोच रहे थे कि दर्शन में इतना आनंद है तो मिलन कितना अानन्ददायी होगा। शिवजी,मायाके साथ मिलन करने उठकर दौड़े। वे परम में आलिंगन देने गए कि वहाँ चतुर्भुज नारायण प्रकट हुए। हरि और हर का मिलन हुआ।
शिवजी ने कैलास वापस आकर ऋषियों को उपदेश दिया-मेरे श्रीकृष्ण की माया सभी को नचाती है।
मन का कभी भरोसा मत करो। यह माया कब पतन के गर्त में फ़ेंक देगी इसका कोई पता नहीं है।
मन में सूक्ष्मतासे छिपे हुए विषय अवसर पाते ही प्रकट हो जाते है।
माया के परदे को हटाने के लिए मन को कृष्णमय बनाओ।
उसके बाद सातवे मन्वन्तर में श्राध्ददेव नामक मनु हुए।
उनके समय में कश्यप और अदिति के घर भगवान वामन का अवतार हुआ।
परीक्षित राजा ने कहा -मै सातवे मन्वन्तर में वामन भगवान की कथा सुनना चाहता हूँ।
शुकदेवजी वर्णन करते है -
राजन, देवों के साथ हुए संग्राम में पराजित होने पर दैत्यों ने शुक्राचार्य का अाश्रय लिया।
शुक्राचार्य की कृपा से दैत्यों का बल बढ़ने लगा। इन्द्र द्वारा पराजित बलि राजा संतो की सेवा करके फिर से बलवान होने लगा। शुक्राचार्य ने उन्हें विश्वजीत यज्ञ करने को कहा। विश्वजीत यज्ञ करने से सावर्जित रथ प्राप्त हुआ।
शुक्र की सेवा करने वाला बलि बनता है। शुक्र-शक्तितत्व से यह शरीर बना है।
शुक्राचार्य अर्थात संयम। ब्रह्मचर्य की सेवा करने से,संयम से दैत्य बलि बना।
सभी विषयों का यज्ञ में होम किया गया।शुक्राचार्य ने बलि को अपना ब्रह्मतेज दिया।
बलि राजा ने देवों का पराभव किया।
स्वर्ग का राज्य दैत्यों ने हस्तगत किया। बलि राजा को इंद्रासन पर बिठाया गया।