Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-233



बलि राजा दान का संकल्प करने के लिए तैयार हुए। यज्ञमंडप में शुक्राचार्य बैठे थे। वह ब्रह्मनिष्ठ है।
वह नजर से ही समझ गए कि  यह साधारण ब्राह्मण नहीं है। यह तो खुद नारायण यहाँ पधारे है।
उन्होंने बलि राजा से कहा- शीघ्रता मत करो। देवों के कार्य की सिध्धि के हेतु से साक्षात नारायण ही वामनजी बनकर आए  है। राजन! तुम्हारा सारा साम्राज्य इनके दो कदम के नाप में समां जायेगा।
जरा सोचकर संकल्प करना। यह वामन तुम्हारा सर्वस्व छिन लेगा।
राजन- दान विवेकपूर्वक दो। इस बालक के कदम कैसे होंगे,यह तुम नहीं जानते।
दान ऐसा मत दो कि तुम दरिद्र हो जाओ और घरवाले दुःखी हो।

बलि राजा ने पूछा - कि-तो क्या मै दान ना दू?
शुक्राचार्यने कहा-दान अवश्य दो किन्तु अपने कदम से नाप कर भूमि दो। यह वामन विराट रूप धारण कर लेगा। देवों के हितार्थ स्वयं विष्णु ही वामन का रूप लेकर आये है।
संकल्पानुसार दान न  देने वाला मनुष्य नरक में जाता है। भविष्य का सोच समझकर दान दो। सर्वस्व का नहीं,पंचमांश का दान करो।

बलि राजा बोले -मैंने वचन दे दिया है। अब मना करू तो असत्य बोलने का पाप होगा
शुक्राचार्य ने कहा -विपत्ति के समय का असत्य-भाषण  क्षम्य है। वैसे तो सत्य बोलना ही धर्म है। इसीलिए
असत्य-भाषण धर्म है,ऐसा नहीं कहा गया है -किन्तु ऐसे समय में वह क्षम्य है और शायद स्तुत्य भी।

चार प्रसंग पर असत्य कहना क्षम्य माना गया है।
(१) किसी के विवाह के समय
(२) स्त्रियों से बात करते समय। स्त्रियों को शाप है कि वे कोई भी बात छिपी नहीं रख सकती।
(३) जब प्राण संकट में पड जाए।
(४) गाय -ब्राह्मण के रक्षण के लिए।
राजन - तुम्हारे सिर पर प्राण संकट में आ खड़ा है। अपने वचनसे भूल जाओ। वामनजी से मना कर दो।
ऐसे समय में वचन-भंगसे कोइ दोष नहीं होता।

बलि राजा ने कहा -महाराज आपने उपदेश तो बहुत अच्छा दिया किन्तु मै वैष्णव हूँ। पहले मै मानता था कि कोई ब्राह्मण-बालक मुझसे भिक्षा मांगने आया है। अब मैंने जाना कि साक्षात विष्णु भगवान मुझसे भिक्षा मांगने आए है तो फिर मै सर्वस्व नारायण को क्यों न अर्पित कर दू?मै वचन का भंग नहीं करूँगा।
दान लेने वाले का हाथ नीचे  और दान देने वाले का हाथ ऊपर होता है। दान देने वाला बड़ा है।
जगत में मेरी प्रतिष्ठा बढ़ेगी कि बलि राजा ने अपना सर्वस्व दान किया।

शुक्राचार्य फिर भी समझाते है -तीसरा चरण रखने के लिए भी नहीं रहेगी अतः तुम्हे नरक में भेज देंगे।
बलि राजा बोले - मुझे नरक का भय नहीं है। पाप करके नरक में जाना अच्छा नहीं है,
किन्तु परमात्मा को सर्वस्व अर्पित करके नरक में जाना अच्छा है।

बलि राजा बोले -मै प्रह्लाद का वंशज हूँ। मैंने गले में वैष्णव की माला पहनी है। मै ठाकोरजी को सब दान  करूँगा। देने के बाद नरक में जाना पड़े तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मै पाप कर्म से नरक में नहीं जा रहा। मै तो भगवान का हो जाऊँगा। भगवान का बन जाने के बाद नरकवास करने में कोई आपत्ति नहीं है।
एक बार ब्रह्म सम्बन्ध स्थापित होने के बाद तो मेरे प्रभु को भी मेरे साथ नरकवासी बनना पड़ेगा।

ब्राह्मण को जब दान दिया जाता है,तब उसके शरीर में विष्णु का आवाहन किया जाता है। यहाँ तो स्वयं महाविष्णु अपने आप ही आये है। गुरूजी,मै ठाकुरजी को सर्वस्व का दान करूँगा। जीव विश्वासघात कर सकता है किन्तु आपत्ति के समय भगवान दौड़ते हुए आते है। मै प्रभु का हो जाऊँगा और वे मेरे।
फिर मै जहाँ जाऊँगा,वे भी साथ-साथ आएंगे।

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