किन्तु यदि मेरे विठ्ठल मेरे साथ है,तो मै कही भी जाने के लिए तैयार हूँ।
तुकाराम गर्भवास मांगते है क्योंकि उन्हें विश्वास है कि मै जहा जाऊँगा,विठ्ठलनाथ साथ-साथ आएंगे।
बलिराजा,शुक्राचार्य को कहते है कि-
गुरजी,हरेक सत्कर्म के बाद आप एक संकल्प कराते है। और आप सारा कर्म कृष्णार्पण कराते है।
अब आज स्वयं श्रीकृष्ण दान मांगने आये है,तो मै इंकार कैसे करू? आप संकल्प कराओ।
कृपया दान का संकल्प कराए। अपने भगवान को मै सर्वस्व अर्पित करूँगा।
शुक्राचार्य -मै संकल्प नहीं कराऊँगा।
वामनजी- राजन,आपके पुरोहित इंकार करते है तो मै संकल्प कराऊँगा।
मै ब्राह्मण पुत्र हूँ-और संकल्प कराना मै जानता हूँ।
बलि राजा ने अनुमति दी। वामनजी संकल्प कराने लगे। उन्होंने जलपात्र से जल हाथ में रखने को कहा।
शुक्राचार्य से यह देखा न गया। उन्होंने सूक्ष्म देह धारण कर जलपात्र की नालीके छिद्र में बैठकर
जल का अवरोध किया। ऐसे उनके वहाँ बैठने से जल बहार नहीं आ सका।
शुक्राचार्य का प्रपंच वामनजी समझ गए। उन्होंने दर्भ का एक तृण लेकर जलपात्र की नली में डाला।
ऐसा करने से शुक्राचार्य की एक आँख फूट गई।
भगवान कहते है -जगत को एक आँख से देखो। "अनेक में एक व्याप्त है" ऐसी द्रष्टि से देखो। यही समभाव है।
दो आँखों से (द्वैत) देखना विषमता है। एक ही आँख से,(अद्वैत) समदृष्टि से देखो।
भगवान स्वयं मांगने आए,फिर भी शुक्राचार्य के मन से द्वैतभाव नहीं गया।
यह मेरा यजमान है,और यह भगवान-ऐसा भाव उनके मन में था। तो उनकी आँख फोड़ दी गई
अर्थात संसार को अद्वैत द्रष्टिसे ही देखना है। योगी एक ही द्रष्टि (अद्वैत) से जगत को देखते है।
शुक्राचार्य समझ गए कि अधिक बाधा करने से मेरी दूसरी आँख भी फोड़ दी जाएगी और वे वहाँ से हट गए।
वामनजी ने बलि राजा को संकल्प कराया।
संकल्प पूर्ण होते ही वामनजी का स्वरुप विराट हो गया। भगवान ने जगत को आवृत कर लिया।
सभी जगह उनका ही स्वरूप दिखने लगा।
जगत बाहर (ऊपर) दशांगुल है। दशांगुल का अर्थ शंकराचार्य ने किया है कि -
दश उंगलियों से प्रभु को वंदन किया जाता है। वेद भी परमात्मा का प्रतिपादन नहीं कर सकते है,
सो निषेधात्मक रीत से "नेति नेति" कहते है। वे कृपा से "अज्ञान" दूर करते है,तभी उन्हें जाना जा सकता है।
वामनजी के एक ही चरण में सारी पृथ्वी समां गई। दूसरे चरण ने ब्रह्मलोक को व्याप्त कर लिया।
तीसरे चरण के लिए स्थान ही नहीं बचा। उस समय सारे दैत्य युध्ध करने के लिए तैयार हो गए।
दैत्य कहने लगे कि- हमारे मालिक को छला जा रहा है।
बलिराजाने उन्हें समझाया कि -यह समय प्रतिकूल है। शान्त रहो ,नहीं तो तुम सब मर जाओगे।
वामनजी बोले-राजन,तुमने संकल्प किया है कि तीन चरण जितनी भूमि दूँगा। अब मै तीसरा चरण कहाँ रखू। संकल्पानुसार दान न देने वाला मनुष्य नरक में जाता है। तुम मुझसे छल रहे हो।
जरा सोचो। इस अवसर में कौन किसके साथ छल रहा है। भगवान दान लेने आये थे तब सात साल के बटुक थे किन्तु दान का संकल्प हो जाने के बाद विराट बन गए।