Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-235



गणेशपुराण में बलि राजा ने भगवान से पूछा था कि वे निष्पाप है फिर भी उनके साथ छल क्यों किया गया?
बलि राजा निष्पाप थे इसलिए भगवान ने उनके साथ युध्ध नहीं किया।
बलि कहते है कि-आपने कपट किया। मुझे पाताल में उतार दिया। क्या यह योग्य है?आप ही निर्णय करे।

वामनजी ने उत्तर दिया -तुम पूर्ण निष्पापि नहीं हो। यज्ञ का आरम्भ में गणेश पूजन की आज्ञा की गई थी पर तुमने इंकार कर दिया।और कहा कि मै विष्णु पूजा करूँगा। गणेश भी विष्णु ही है,किन्तु तुम नहीं माने।
यह तुम्हारी भेद दृष्टि थी।

जब तक अनन्य भक्ति सिध्ध नहीं हो पाई है,
तब तक अन्य देवों में भी अपने इष्टदेव का अंश मानकर उन्हें वंदन करो और इष्टदेव से अनन्य भक्ति करो।
तुमने शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन किया। तुमने गणेश पूजा तो की किन्तु पूज्य भाव से नहीं की।
गणेशजी ने मुझसे प्रार्थना की  कि मै तुम्हारे यज्ञ में बाधा डालू। अतः मै यहाँ आया था।
गणपति महाराज विघ्नहर्ता भी है और विघ्नकर्ता भी।

वामनजी के एक ही चरण में सारी पृथ्वी -और-दूसरे चरण ने ब्रह्मलोक को व्याप्त कर लिया।
और अब वह बलिराजा को कहते है कि-अब बताओ मै तीसरा चरण कहाँ रखू।
वामनजी महाराज का विराट स्वरुप देखकर बलि राजा भयभीत हो गए।
उस समय सत्वगुण-स्वरूपा विंध्यावली कहने लगी कि-यह सब (संपत्ति) तो तुम्हारी क्रियाभूमि है।
इस शरीर पर जब जीव का अधिकार नहीं है तो संपत्ति और संतति पर तो कैसे हो सकता है?
शरीर मिटटी से बना हुआ है। जीव व्यर्थ ही ऐसा मानता है कि शरीर,संपत्ति आदि मेरा अपना है।
वास्तव में ऐसा नहीं है।

गीता का आरम्भ “धर्म” शब्द से किया गया है।
गीता का प्रथम शब्द है “धर्मक्षेत्रे”. गीता की समाप्ति “मम”शब्द से की गई है।
गीता का अंतिम शब्द है “मम”. इन दो शब्दों (धर्म-ममः) के मध्य में सारी  गीता समायी हुई है।
“मम”का अर्थ है मेरा। “मम धर्म” मेरा धर्म। धर्म अर्थात सत्कर्म।
मेरे हाथों से जो भी सत्कर्म हो पाये,वही और उतना ही मेरा है। जितने सत्कर्म करोगे,उतना ही तुम्हारा होगा।

अर्जुन ने भगवान से कहा है -मै आपका हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।
तब भगवान को उसे अपनाना पड़ा और उनके रथको भी चलाना पड़ा।
मनुष्य यह नहीं जानता कि उसका क्या है और क्या नहीं है ,फलतः संघर्ष होता है।
द्रव्य के सिवाय भी कोई अन्य सुख है या नहीं और आत्मानंद जैसी भी कोई चीज है,यह मनुष्य नहीं जानता।
अपने हाथों से किया हुआ सत्कर्म ही अपना है।

यह जीव (मनुष्य) नहीं,प्रभु (आत्मा-परमात्मा) ही स्वामी है। जीव (मनुष्य)तो मात्र मुनीम है।
इस शरीर पर जब जीव (मनुष्य) की सत्ता नहीं है तो और किसी चीज  पर कैसे हो सकती है?
यमराज की आज्ञा होते ही शरीर का त्याग करना पड़ता है। जगत के कानून वहाँ नहीं चलते।
यह कभी मत भूलो कि तन और मन के स्वामी मात्र परमात्मा ही है,फिर भी जीव मेरा-मेरा करता है।
जो मेरा-मेरा करता है उसे भगवन मारते है और जो तेरा-तेरा करता है उसे तारते है।


   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE