Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-237



बलवान ही भगवान के मार्ग पर जा सकता है।
जो अंदर के शत्रु -लोभ,काम,क्रोध,मोह,मद और मत्सर को मारे वही बलवान है।

शारीरिक,बौधिक और ज्ञानबल की अपेक्षा प्रेमबल अधिक श्रेष्ठ है। प्रेमबल के आगे सभी अन्य बल गौण है।
प्रेम बल से परमात्मा को जीता जा सकता है। परमात्मा के साथ प्रेम करोगे और सयंम बढ़ाओगे
तभी तुम बलि बन पाओगे। तभी वामन बनकर भगवान तुम्हारे घर आयेंगे।
भगवान को मांगते हुए संकोच हो रहा था इसलिए वामन (छोटे) बनकर आये थे।

एक बार एक स्त्री कथा सुनने के लिए घरसे निकलने लगी तब- उसका बालक रोने लगा।
माँ ने उसे खिलौने दिए,फिर भी वह रोता रहा। वह माता का आँचल खींचने लगा और कथा में जाने से रोकने लगा। बालक के प्रेम से माता दुर्बल हो गई,अतः वह कथा में नहीं गई।

वही बालक युवक बना,विवाह किया और माता का प्रेम भी भूल गया।
युवक बना हुआ,वह बालक का -माता का प्रेम भी समय के साथ-साथ कम हो गया।
अब वह माता को कथा में जाने से रोकता तो माता नहीं मानती,वह कहती कि अब तुम्हे मुझ पर प्रेम नहीं है।
युवक जब बालक था तब उस पर माता का प्रेम पूरा था और प्रेम के आगे वह दुर्बल थी। पर अब नहीं।

परमात्मा में भी जब पूरा प्रेम हो तो परमात्मा दुर्बल बनते है। आँगन में भिक्षा लेने आते है।
परमात्मा आँगन में आते है तो तीन चीज़ मांगते है। वे तीन कदम भर पृथ्वी मांगते है अर्थात तन,मन और धन। इन तीनो का भगवान को दान करना चाहिए। तन,मन और धन से भगवान की सेवा करो।
तन से सेवा करने से देहाभिमान नष्ट होगा। धन से सेवा करने से धन की माया-ममता-मोह नष्ट होगा।
मन से सेवा करने से पाप जल जाएगा। मन पवित्र होगा और शान्ति मिलेगी।

सभी चीजें भगवान की है और उन्ही को अर्पण करनी है। उन्ही का दिया हुआ उन्हें देना है।
शरीर से ईश्वर सेवा करने से तमोगुण घटता है।  ईश्वर सेवा में खूब धन का उपयोग करने से रजोगुण कम होगा।
तन और धन दो पर जब तक मन ईश्वर को नहीं दोगे तब तक ईश्वर प्रसन्न  नहीं होंगे।
सत्वगुण के क्षय के हेतु मन भी ईश्वर को अर्पण करना है। मन को उनकी सेवा में लगाए रखना है।
सेवा करते हुए आँख में आँसु आए तो मान लेना कि ठाकुरजी ने कृपा की है।
ज्ञानी ईश्वर के साथ शरीर से नहीं,मन से सम्बन्ध जोड़ता है।

बलि राजा ने ईश्वर को धन दिया,मन दिया पर जब तक अपना तन नहीं दिया,
अपने आप को समर्पित नहीं किया,और भगवान  को नमन नहीं किया तब तक वह भगवान को पसंद नहीं है।

बलि राजा में सूक्ष्म अभिमान था कि मै दान दे रहा हूँ। मन में थोड़ी ठसक थी कि मैंने सब कुछ दे दिया।
मै बड़ा दानवीर हूँ। समर्पण करने के बाद भी उनमें दैन्यता नहीं आई थी।

सत्कर्म करने के बाद यदि दैन्य न आये तो सत्कर्म फलता नहीं है।
कर्म बाधक नहीं है,किन्तु "मैने (सत) कर्म किया है" ऐसा अहंकार बाधक है।
बलि के मन में -जब दैन्य आया तो सेव्य (प्रभु) को सेवक बनना पड़ा। प्रभु द्वारपाल तक बनने को राजी हो गए।

बलि राजा को सुतल पाताल का राज्य मिला। बलि राजा ने राज्य में प्रवेश किया। उन्हें आनंद हुआ है।

स्वर्ग से तो पाताल का राज्य अच्छा है। स्वर्ग  से ज्यादा शान्ति पाताल में लगती है। यहाँ जहाँ भी नज़र करो नारायण के दर्शन होते है। प्रत्येक द्वार पर शंख,चक्र,गदा,पद्मधारी श्रीकृष्ण विराजमान है।


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