Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-238



एक बार रावण घूमता-घूमता पातालमे बलि के पास आया और बलिके साथ लड़ने को तैयार हुआ।
उसने बलि के द्वार पर वामनजी (नारायण) को चौकी करते  देखा।
उसने वामनजी से कहा कि वह बलि राजा के साथ युध्ध करना चाहता है।
वामनजी ने कहा -पहले मुझसे युध्ध कर। मै सेवक हूँ  और वे स्वामी।
वामनजी ने उसकी (रावणकि) छाती पर लात मारी कि  वह समुद्र-किनारे जा गिरा।
रावण काम है। तुम्हारी इन्द्रियों के द्वार पर अगर भगवान चौकी करने लगे,तो काम उसमे प्रवेश नहीं कर सकेगा।

वामनजी बलि राजा के घर दान लेने गए तो दान लेकर उनको वहाँ द्वारपाल बनना पड़ा।
वामनजी ने स्वर्ग का राज्य  इन्द्र को वापस दिया।

इन्द्र ,बलि राजा और अन्य को आनंद हुआ है -पर सिर्फ महालक्ष्मी दुःखी हुए है।
घर में सब कुछ था,किन्तु नारायण की अनुपस्थिति से वे बेचैन थी। वे सोचती थी कि  वे कह  है,कब आएंगे?
एक दिन उन्होंने अकुलाहट के मारे नारदजी से पूछा -मेरे स्वामी कहाँ है?
नारदजी ने उत्तर दिया-सुना है कि नारायण सुतर-पाताल में बलि राजा के घर-द्वार पर चौकी कर रहे है।
बलि के पास दान लेने गए पर बंधन में पड़ गए। सर्वस्व का दान लेकर ऋणी हो गए।

नारायण को लेनेके लिए लक्ष्मीजी सुतर-पाताल में आई।
घर में ठाकुरजी को रखोगे तो लक्ष्मीजी बिना बुलाए पीछे-पीछे आएगी। नारायण जहाँ हो वहाँ लक्ष्मीजी आती है।
सो लक्ष्मीजी के पीछे नहीं,नारायण  के पीछे लग जाओ.
नारायण की आराधना करोगे तो लक्ष्मीजी अपने आप आएगी।
लक्ष्मीजी से प्रार्थना करो -माँ तुम नारायण के साथ आना।

बलि राजा के वहाँ जाने के लिए लक्ष्मीजी ने ब्राह्मण पत्नी का रूप धारण किया। वे पाताल लोक में आई है।
किसी ने उन्हें नहीं पहचाना। लक्ष्मीजी ने बलि राजा से कहा -मै ब्राह्मण कन्या हूँ। आशा से आई हूँ।
जगत में मेरा कोई भाई नहीं है। मैने सुना है कि  तुम्हारे कोई बहन नहीं है।
आज से मै तुम्हारी धर्म बहन और तुम मेरे धर्म भ्राता। बलि को आनन्द हुआ।
उसने लक्ष्मी जी को वन्दन किया।  अब तक मुझे एक ही  दुःख था कि मेरे कोई बहन नहीं है।
अब मुझे बहन मिल गई है। यह सब तुम्हारा है इसे तुम्हारा मैका ही समझना।

लक्ष्मीजी के आगमन से सभी को आनंद था किन्तु स्वयं लक्ष्मीजी को कोई आनंद  नहीं था।
दुःख था कि उनके स्वामी हाथ में लाठी पकड़ कर एक सामान्य चौकीदार की भाँति पहरा दे रहे है।
कोई ऐसा समय आए जिससे मै उन्हें इस बंधन में से छुडाऊ।

श्रावन मास आया। लक्ष्मीजी ने राखी के दिन बलि राजा से कहा कि -मै तुम्हे आज राखी बाँधूँगी।
बलि राजा ने राखी बँधवाकर वंदन करते हुए लक्ष्मीजी से कहा,बहन,आज मुझे तुम्हे कुछ देना चाहिए।
जो जी में आये,माँगो। जरा भी संकोच मत रखो।

लक्ष्मीजी बोली -माँगते हुए संकोच हो रहा है।
मेरे घर में सब कुछ है किन्तु एक वह नहीं है जिसके बिना मै बैचेन हूँ। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।
अपने इस द्वारपाल को मुझे दे दो। तुम उन्हें  मुक्त कर दो।
बलि राजा ने पूछा -क्या ये तुम्हारा रिश्तेदार है ?
लक्ष्मीजी -ये तो मेरे नारायण है,मेरे सर्वस्व है। मै उन्हें तुम्हारे बंधन में से मुक्त कराने आई हूँ।
और नारायण चतुर्भुज स्वरुप में प्रकट हुए।
बलि राज को अति आनंद हुआ। दोनों को वंदन किया। लक्ष्मी नारायण की पूजा की।


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