Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-239



शुकदेवजी वर्णन करते है। इस तरह लक्ष्मीजी दान लेकर -बंधन में पड़े नारायण को मुक्त कराती है।
और वह नारायण को वैंकुंठ में ले गई है।
महालक्ष्मी नारायण के साथ श्रावण- शुक्ल पूर्णिमा के दिन वैंकुंठ धाम में सिधारी।
इस स्मृति में रामानुजाचार्य पंथ के मंदिरों में इस दिन पाटोत्सव मनाने की प्रणाली चली आई है।

अब शरणागति की कथा शुरू होती है।
शुकदेवजी वर्णन करते है -राजन,परमात्मा कूर्म बने या मत्सर किन्तु वे सदा परमात्मा ही बने  रहते है।
जीव जब पशु का अवतार लेता है,तो उस पशु विशेष के गुणधर्म उसमे आ जाते है।

सत्यव्रत(मनु महाराज) एक समय कृतमाला नदी के किनारे तपश्चर्या कर रहे थे।
एक बार वे नदी में जलतर्पण कर रहे थे कि हाथ में एक मत्स्य आया। मनु ने उसे जल में छोड़ दिया।
मत्स्य ने कहा- मै आपके शरण में आया हूँ। नदी के अन्य बड़े मत्स्य मुझे खा जायेंगे,अतः आप मेरी रक्षा करो।

राजा ने उसे कमंडल में रख दिया। मत्स्य ज्यों -ज्यों बड़ा होता गया उसे  बड़े स्थान की आवश्यकता पड़ने लगी। वह विशाल स्वरुप धारण करता गया। सत्यव्रत को आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि यह साधारण मत्स्य  नहीं है।

इस कथा के पीछे रहस्य है।
मत्स्य ही वृत्ति है। वृत्ति विशाल बने,किन्तु जब तक वह -वृत्ति ब्रह्माकार न हो जाये,तब तक शान्ति नहीं है। मेरापन-”अहम" और परमात्मा  एक ही स्थान में नहीं रह सकता,नहीं समां सकता।
सच यह है कि-मै सर्व में हूँ और मुझमे सर्व है। (अद्वैत)
इस जीव के ह्रदय में ईश्वर रहते है। फिर भी जीव की पीड़ा या मृत्यु ईश्वर को व्यथित नहीं कर सकती।
मानो भगवान को इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं है।

दीपक के प्रकाश में चाहे कोई भगवत पाठ करे,या करे,
फिर भी दीपक के मन में किसी के प्रति न तो सुभाव होगा,न तो कुभाव।
दीपक का धर्म तो एक ही है,प्रकाशित होना,प्रकाश देना। प्रकाशका किसीके कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

परमात्मा सभी के ह्रदयमें बस कर दीपक की भाँति प्रकाश देते है।
जीव पाप करे या पुण्य,किन्तु साक्षीभूत परमात्मा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
ईश्वर न तो निष्ठुर है और न दयालु। ईश्वर का अपना कोई धर्म नहीं है। ईश्वर आनन्दरूप है,सर्वव्यापी है।
परमात्मा बुध्धि  से पर है। ईश्वर ही बुध्धि को प्रकाशित करते है।  ईश्वर को प्रकाश देने वाला कोई नहीं है।
ईश्वर तो स्वयंप्रकाशी है। ईश्वर के सिवाय अन्य सभी परप्रकाशी है।

ईश्वर का यह दीपक सा स्वरुप हमे प्रकाश देता है।
इस स्वरुप (परमात्मा)का अनुभव करने के लिए ज्ञानी पुरुष ब्रह्माकारवृत्ति धारण करते है।
मन जब ईश्वर के आकार का चिंतन करता है,वृत्ति जब ब्रह्माकार-कृष्णाकार बने तब शान्ति मिलती है।
ईश्वर को छोड़कर मनोवृत्ति को जहा भी रखोगे,वह स्थान उसे समा नहीं पाएगा।
अतः अन्य किसी भी वृत्ति-प्रवृति में मनोवृत्ति को शान्ति नहीं मिलेगी।

स्वयं प्रकाशित परमात्मा सभी के ह्रदय में रहते हुए सिर्फ प्रकाश ही देते है और कुछ नहीं करते।
प्रभु के सगुण  रूप को मनमे बसाकर,उसी में वृत्ति को तदाकार करोगे तभी शान्ति मिलेगी।

मत्स्यनारायण ने कहा - राजन,आज से सातवे दिन प्रलय होगा और सर्वनाश हो जाएगा।
मै तेरा कल्याण करने के हेतु से आया हूँ। मै तुम्हारी रक्षा करूँगा। मेरे शिंग से  अपनी नैया बांध देना।
मनु महाराज(सत्यव्रत)प्रभु का ध्यान कर रहे थे।
उनकी वृत्ति ब्रह्माकार हुई और जब पृथ्वी जलमय हुई,तब मत्स्यनारायण ने उनका रक्षण किया।

मत्स्यनारायण अवतार का रहस्य कुछ ऐसा है -
कृतमाला के किनारे रहना- मतलब कि सत्संग की परम्परा में जीना।
सत्यव्रत-जीवात्मा की वृत्ति ब्रह्माकार बनती है।
और तब मत्स्यनारायण उसके हाथ में आता है,ऐसे अधिकारी जीव को ही परमात्मा मिलते है।

प्रलय में चाहे अन्य किसी भी चीज़ का नाश हो जाए
किन्तु ईश्वर सत्यनिष्ठ का नाश नहीं होने देते क्योंकि उन्होंने (मत्स्य) नारायण के साथ सम्बन्ध जोड़ा था।
शरीर नैया है। प्रभु के चरण सींग है। इस शरीर को परमात्मा के चरणों के साथ बांध दो।

समाप्ति में आदि मत्स्यनारायण को शुकदेवजी बार-बार प्रणाम करते है।
महात्मा मत्स्यनारायण की स्तुति को गुरुष्ट कहते है।

मत्स्यनारायण प्रभु ने वेद के चोर दैत्य हयग्रीव का संहार किया। मनु महाराज को मत्स्य-संहिता का उपदेश दिया। ऐसे प्रभु को प्रणाम करते हुए हम आठवें स्कन्ध को समाप्त करते है।
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स्कंध-८ -समाप्त


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