वही सर्व साधन का फल है।
प्रभु के द्वारा उत्पन्न जगत भजन में विक्षेपकर्ता नहीं है
किन्तु जीव (जीवात्मा) अपने मन में जिस जगत को बसाता है -और वही भजन में विक्षेपकर्ता बन जाता है।
मन में से संसार के सूक्ष्म स्वरुप को निकालोगे तभी वहाँ श्रीकृष्ण बसेंगे।
जैसे,कोई बर्तन में बर्षो से तेल रखा है और फिर उसे साफ करने के लिए पांच-दस बार धोने पर वह स्वच्छ तो होगा पर उसके अंदर से उसकी बदबू नहीं जाएगी। अगर उसके अंदर कुछ ओर चीज रखोगे तो वह बिगड़ जाएगी। उसी तरह मनुष्य का मस्तक भी ठीक ऐसा ही है।
इसमें कई वर्षो से कामवासनारूपी तेल जम गया है। इस बुद्धिरूपी पात्र में श्रीकृष्ण-रूपी रस रखना है।
अब इस मस्तिकरूपी बर्तनमें काम-वासनाका अंशमात्र भी होगा तो उसमे प्रेमरस नहीं जमेगा।
परमात्मा का बुध्धि में आने से शान्ति मिलती है।
बुध्धि में जब तक ईश्वर का अनुभव नहीं होता तब तक आनंद का अनुभव नहीं होता।
नवम स्कंध में दो प्रकरण है। सूर्यवंश औए चन्द्रवंश।
बुध्धि की शुध्धि के लिए सूर्यवंश में रामचन्द्रजी का चरित्र का वर्णन है।
मन की शुध्धि के लिए चन्द्रवंश में श्रीकृष्ण का चरित्र कहा है।
रामायण में रामचन्द्रजी के चरित्र का वर्णन विस्तार से किया है।
रामचन्द्रजी का चरित्र का वर्णन भागवत में संक्षिप्त में किया है। इसमें बताया है कि जो रामचन्द्रजी की मर्यादा का पालन करे और काम(रावण) को मारे उसे कन्हैया मिलता है।
सूर्यवंश में रघुनाथजी प्रकट हुए है और चन्द्रवंश में श्रीकृष्ण।
राम पहले आते है। बाद में श्रीकृष्ण आते है। राम न आये तब तक श्रीकृष्ण नहीं आते। भागवत में मुख्य कथा श्रीकृष्ण की है। फिर भी राम के आगमन के बाद ही श्रीकृष्ण आते है।
रामजी की मर्यादा को बताने का उद्देश्य है। यदि रामजी की मर्यादा का पालन करोगे तभी श्रीकृष्णलीला का रहस्य समझ सकोगे। मनुष्य को थोड़ी संपत्ति या थोड़ा अधिकार मिलते ही वह राम की मर्यादा भूल जाता है। रामजी की उत्तम सेवा यही है कि उनकी मर्यादा का पालन और उनका जैसा वर्तन रखो।
आरम्भ में रामचन्द्रजी के चरित्र का वर्णन है। फिर दशम स्कंध में श्रीकृष्ण की कथा आएगी। रामजी ने जो किया था वह करना है किन्तु श्रीकृष्ण ने जो कहा था वह करना है।
रामजी पूर्ण पुरूषोत्तम होने पर भी मनुष्य को आदर्श बताते है। रामजी का मातृप्रेम,पितृप्रेम,बन्धुप्रेम,एक पत्नीव्रत आदि सब कुछ जीवन में उतारने योग्य है।
श्रीकृष्ण जो करते है,वह सब कुछ करना हमारे लिए नहीं है।
-वे कालिनाग को वष में करके उसके सर पर नृत्य करते थे।
-श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को भी ऊँगली से उठा लिया था।
श्रीकृष्ण के चरित्र का प्रारम्भ पूतना-चरित्र से होता है। पूतना का सारा ज़हर उन्होंने पी लिया था।
जो विष को पचा सके उसके बाद ही उनके चरित्र का अनुकरण कर सकते है !!