Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-244



एक बार मरुत को मार्ग में नारदजी मिले और उन्होंने नारदजी को अपनी कठिनाई सुनाई।
नारदजी ने कहा कि बृहस्पति के छोटे भाई संवर्त को बुला लीजिये। वे भी गुरु समान ही है।

राजा ने कहा -संवर्त तो योगी  है और उनका कोई पता नहीं है।
नारदजी -उनका पता मै बताऊँगा।
संवर्त महा योगी है उनका नियम था कि चौबीस घंटेमें वे  एक बार काशी विश्वनाथ के  दर्शन करने  आते थे।
पर यदि रास्ते में कोई शब के दर्शन हो जाये तो उसे भी शिव मानकर वंदन करके वापस चले जाते।
महाभारत के अनुशासन पर्व में यह कथा विस्तार से कही है। यहाँ संक्षिप्त में कही है।

मरुत राजा शव  लेकर -काशी विश्वनाथ के रास्तेमे -रात को -जाके बैठे है।
एक पागल सा व्यक्ति आया। उसने शव  को देखा और वंदन करके वापस लौटने लगा।
तभी  मरुत्त राजा को विश्वास हो गया कि यह संवर्त योगी है।

राजा ने उनके चरण पकड़ लिए और प्रणाम किया। संवर्त कहने लगे-मै अज्ञानी हूँ,मुझे ज्ञान दीजिये।
मरुत्त बोले-आप संवर्त है,,मेरे गुरु हो।बृहस्पति के छोटे भाई हो।
बृहस्पति जब से देवों के गुरु हुए है,मेरे घर नहीं आते है। मुझे  यज्ञ करना है। कोई मुझे यज्ञ नहीं करवाता है।

संवर्त -मै यज्ञ तो कराऊ किन्तु तेरा ऐश्वर्य देखकर अगर बृहस्पति कहे कि वो तेरे गुरु होने के लिए तैयार है,
तो ऐसे समय में जो तू मेरा त्याग कर देगा- तो मै तुम्हे भस्मीभूत कर दूंगा।

राजा ने संवर्त की शर्त स्वीकार की। संवर्त ने राजा को मन्त्र-दीक्षा दी। यज्ञ का आरम्भ हुआ।
यज्ञ के सभी पात्र सुवर्ण के थे। बृहस्पति ललचाया।
उसने मरुत्त को सन्देश भेजा कि वह यज्ञ करने के लिए तैयार है।

बृहस्पति ने इंद्र से बात की। इंद्र ने अग्नि द्वारा सन्देश भेजा कि बृहस्पति को गुरु बनाया जाये।
अगर ऐसा नहीं हुआ तो यज्ञ में (हम) बाधा उपस्थित करेंगे। मरुत फिर भी नहीं माना
इधर संवर्त योगी जिस देव को आज्ञा करते है,वह वहाँ उपस्थित होते थे,और अपना हविर्भाग ग्रहण करते थे।
जैसा यज्ञ मरुत्त का हुआ था वैसा न तो कभी किसी का हुआ है और न कभी होगा। इसका वर्णन ऋग्वेदमें भी है।

वैवस्त मनु के पुत्र -नभग के यहाँ नाभाग हुए है।
भगवान शंकर की कृपा से नाभाग के घर भक्त अंबरीष का जन्म हुआ। अंबरीष मर्यादा भक्ति के आचार्य है। कांकरोली में विराजमान द्वारिकानाथ राजा अंबरीषके सेव्य ठाकुरजी है।

अंबरीष राजा की संपत्ति भोग के लिए नहीं परन्तु भक्ति के लिए थी।
अंबरीष  राजा की निष्ठां थी  कि -स्त्री और संपत्ति भोग के लिए नहीं पर भक्ति के लिए है।

अंबरीष शब्द का जरा विचार करो -
अंबर अर्थात आकाश और ईश अर्थात ईश्वर। आकाश अंदर भी है और बाहर भी है। जिसके अंदर और बाहर सभी स्थान पर ईश्वर है,वही अंबरीष है। चारों ओर जिसे परमात्मा दिखाई दे,वही अंबरीष है।

ज्ञानमार्ग में इन्द्रियरूपी द्वार बंद रखने पड़ते है। भक्ति-मार्ग में सभी इन्द्रियाँ भगवान के मार्ग में लगानी पड़ती है। भगवान के चरणों में भक्त अपनी इन्द्रियाँ अर्पित करता है। भक्त अपनी सारी इन्द्रियो का भगवान से विवाह कर देता है। भगवान हृषिकेश इन्द्रियों के स्वामी है।

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