एकादशी के दिन घर में अन्न पकाया तो क्या,उसके दर्शन तक न किया जाये। इस दिन अन्न में सभी पापों का वास होता है। रात को एक-दो घंटे भजन करो। इस दिन पंढरपुर के विठ्ठलनाथ भी नहीं सोते।
पाँच कर्मेन्द्रियाँ,पॉँच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन - इन सभी को प्रभु में लगाये रखना ही एकादशी है।
आजकल तो लोग एकादशी के दिन ग्यारह रसों को भोगते है और उसे दिवाली का लघुरूप बना लेते है।
ऐसा नहीं करना चाहिए। इससे एकादशी का फल नहीं मिलता।
उप=समीप और वास= रहना। उपवास का अर्थ है प्रभु के समीप रहना। और वही है सच्ची एकादशी।
द्वादशी के दिन एक बार भोजन करो। ब्राह्मण की सेवा के बाद प्रसाद ग्रहण करो।
द्वादशी के दिन दो बार भोजन करने से एकादशी का भंग होता है।
विधिपूर्वक उपवास करने से पाप जलते है और तन -मन शुध्ध होते है।
यदि विधिपूर्वक किया न जाये तो मर्यादानुसार अन्नाहार का त्याग करके फलाहार करो।
यह व्रत आरोग्य की दृष्टि से भी आवश्यक है। आजकल तो लोग डाक्टरों का बिश्वास करते है किन्तु व्यास जैसे महान ऋषि-मुनि के शब्दों का नहीं। डाक्टर टाइफोड कहकर इक्कीस दिन अनशन कराये तो लोग करते है,किन्तु एकादशी का एक दिन उपवास नहीं करते।
एकादशी न करने वाले को एक साथ इक्कीस दिन की एक साथ करनी पड़ती है।
राजा अंबरीश ने विधिपूर्वक एकादशी का व्रत किया और उसकी पूर्णाहुति के समय यमुना-किनारे आए।
वहाँ उन्होंने स्नान किया और ब्राह्मणों की पूजा करके व्रत की पूर्णाहुति करने की तैयारी करने लगे।
इतने में वहाँ दुर्वासा ऋषि अतिथि बनकर आये। भगवान का भोग लगा दिया था।
राजा ने मुनि का स्वागत करते हुए कहा,पधारिये महाराज। मेरे यहाँ प्रसाद ग्रहण कीजिये।
दुर्वासा ने कहा-मै मध्यान्न कर्म आदि से निवृत होकर आता हूँ।
अंबरीश राजा दुर्वासा को कहते है -त्रयोदशी के पहले व्रत छोड़कर प्रसाद लेना है,इसलिए आप जल्दी आना।
दुर्वासा संध्या-पूजा करने गए है।यमुना किनारे आकर स्नानादि करके पूजा में इतने तन्मय हो गए कि उन्हें समय का ख्याल ही न रहा।
इस तरफ अंबरीश चिन्ता में है। ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रण दिया है। उन्हें भोजन कराने से पहले तो भोजन किया नहीं जा सकता। यदि मै प्रसाद ग्रहण कर लू तो ब्राह्मण की मर्यादा का भंग होता है और ग्रहण न करू तो त्रयोदशी का आरम्भ हो जाने पर व्रत का भांग होने जा रहा है। द्वादशी की समाप्ति के कुछ ही पल शेष रहे है। ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर राजा ने जलपान लिया।
जब दुर्वासा आये,तब,राजा ने दुर्वासा का स्वागत किया।
दुर्वासा ने अनुमान करके मान लिया कि राजा ने प्रसाद ले लिया है।
उन्होंने राजा से कहा -राजन,तूने मुझे आमंत्रण तो दिया,किन्तु मुझसे पहले भोजन करके अच्छा नहीं किया।
मै अतिथि हूँ और मुझे ही भूखा रखकर तूने भोजन कर लिया? यह तेरी कैसी विष्णु-भक्ति?
राजा -मैंने तो जलपान ही किया है महाराज।
किन्तु दुर्वासा कहाँ सुनने वाले थे? उन्हें क्रोध आया है।
दुर्वासा ने अपने सिर के केश में से कृत्या उत्पन्न की और उसे राजा को मारने की आज्ञा की।
कृत्या अंबरीश को मारने चली तो अंबरीश की प्रार्थना से भगवान ने सुदर्शन चक्र छोड़ा और कृत्या की हत्या की। अब वह सुदर्शन चक्र दुर्वासा के पीछे मारने चला। मुनि एक लोक से दूसरे लोक भागने लगे किन्तु चक्र ने पीछा नहीं छोड़ा। दुर्वासा की रक्षा कोई न कर सका। अंत में वैंकुंठ में आकर नारायण से प्रार्थना करने लगे।
"भगवान मेरी रक्षा कीजिये।" नारायण ने स्वागत किया तो मुनि ने कहा -मेरे पीछे चक्र पड़ा है,आप मेरी रक्षा करे।