Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-247



भगवान मुनि से कहने लगे -जो वैष्णव अनन्य भाव से मेरी सेवा करके मुझे उसका सर्वस्व अर्पण करता है उसे मै अपना सर्वस्व का दान करता हूँ। मै भक्ताधीन हूँ। मेरा चक्र इस समय राजा अंबरीश की आज्ञा के अधीन है।
महाराज,तप और विद्या अति उत्तम है। फिर भी यदि उसे विनय-विवेक का सहारा न हो तो व्यर्थ ही है।
आप तपस्वी है और आपके पास प्रबल शक्ति भी है पर आपने उसका दुरूपयोग किया।

आप जरा सोचे-क्या अंबरीश ने कोई अपराध किया था? उनकी कोई भूल थी?
उसने व्रत के पालन के हेतु से ही मात्र जलपान ही किया था। फिर भी आप क्रोधित हुए।
आप उसी के पास जाइए और प्रार्थना  कर उनसे क्षमा मांगिए।
यदि भक्त राजा अंबरीश क्षमा करेंगे,तभी इस सुदर्शन चक्र की गति रुकेगी।

दुर्वासा अंबरीश के पास आये और क्षमायाचना के लिए उन्हें प्रणाम करने जा रहे थे कि राजा ने कहा -
"नहीं,महाराज। आप वंदन करें यह शोभास्पद नहीं है। प्रणाम तो मुझे आपको करना चाहिए।"
राजा ने सुदर्शन चक्र से प्रार्थना की -शांत हो जाओ। यदि आज दिन तक मैंने कभी कोई दान,पुण्य,यज्ञ,सेवा की है तो उन सबके पुण्य से तुम्हारा वेग शांत हो जाये। सुदर्शन चक्र शांत होकर वापस लौट गया।

अंबरीश की कथा में भी एक रहस्य है। अंबरीश शुध्ध भक्ति स्वरुप है।
अतः चरित्र के आरम्भ में सभी इन्द्रियों की भक्ति बताई गई है। अंबरीश का भक्ति चरित्र है।

भक्ति-मार्ग में दुर्वासा बाधा उपस्थित करती है। मै बड़ा हूँ और बाकी सब छोटे है ऐसी दुर्भावना दुर्वासना है।
मै दूसरो को सुख दूँगा -यह  सदवासना है। सदवासना से भक्ति बढ़ती है। दुर्वासना से भक्ति का नाश होता है।
मन लेने की इच्छा -दुर्वासना और मन देने की उपासना -सदवासना।
भक्ति में अहम आये तो समझो -दुर्वासना आई है।
अभिमान से क्रोध उत्पन्न होता है। और क्रोध से कृत्या=कर्कश वाणी -उत्पन्न होती है।

कर्कश वाणी -कृत्या भक्ति को मारने जाती है तब ज्ञानरूपी सुदर्शन चक्र भक्ति को बचाने आता है।
ज्ञान कृत्या को विनिष्ट करता है। यदि भक्ति शुध्ध हो तो कर्कशा वाणी उसका कुछ भी नहीं कर सकती।
भक्ति की रक्षा सुदर्शन चक्र अर्थात ज्ञान करता है।

सभी में श्रीकृष्ण का दर्शन ही सुदर्शन है। भक्ति शुध्ध होगी तो ज्ञान-वैराग्य दौड़ते हुए आएँगे। भक्ति माँ है।
ज्ञान और वैराग्य बच्चे है। जहाँ  माँ -शुध्ध भक्ति हो वहाँ बच्चे -ज्ञान और वैराग्य दौड़ते हुए आते है।

सभी में समता-समभाव रखे वह- ज्ञानी। सब में ईशवर  है -ऐसा ज्ञान वह सच्चा ज्ञान है।
ईश्वर के स्वरुप में ज्ञान के बिना भक्ति नहीं आती। इसलिए भक्ति में ज्ञान जरुरी है।
विषय के प्रति जब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होता तब तक भक्ति नहीं हो सकती।
भक्ति सिद्ध हुई कि सभी शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त हो गया।

जरा सोचो -शुकदेवजी सन्यासी महात्मा है। पर कथा कहते है -राजा-रानी की।
साधु-सन्यासी गृहस्थ के घर की बातें सुनने को भी तैयार नहीं है तो फिर शुकदेवजी को राजा-रानी की कथा करने से क्या लाभ?शुकदेवजी को राजा की कथा करने की क्या जरुरत थी? पर अंबरीश जैसे राजा शुकदेवजी को पसंद है।

"धन्य है -अंबरीश को जो राजमहल में रहने  पर भी सन्यासी जैसे जीवन जीते है। मै तो वन में रहकर सन्यासी जीवन जी रहा हूँ। मै सभी कुछ छोड़कर प्रभु के पीछे दौड़ रहा हूँ,जब कि अंबरीश घर में रहकर द्वारकाधीश के साथ है। निःसंदेह वह मुझसे श्रेष्ठ है। यही कारण है कि मैंने इनकी कथा सुनाई।"


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