Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-248



ज्ञान प्रभु को परतंत्र नहीं कर सकता। भक्ति ही भगवान को को बांधती है,परतंत्र करती है।
ज्ञानी महात्मा ब्रह्मानुभव तो कर सकते है किन्तु भगवान को स्वाधीन नहीं कर सकते है।

मनु महाराज के वहाँ इश्वाकु नाम का पुत्र हुआ। वह वंश में मांधाता  हुआ।
इस राजा मांधाता की पचास कन्याओं का विवाह सौभरी ऋषि के साथ हुआ।

सौभरी तपश्चर्या करके सिध्ध  हुए थे। सो वहाँ दर्शनार्थी जनता की भीड़ जमा होने लगी।
भीड़ जमा होने से भजन में भांग होना स्वाभाविक है।
सौभरी ने सोच-विचार कर यमुनाजी में प्रवेश किया और वहाँ जल में तप करने लगे।

एक बार उन्हें मन में अभिमान आया कि माया मुझे क्या असर करेगी? तब भगवान ने माया की रचना करी।
ऋषि ने एक-बार एक मत्स्ययुगल की प्रेम-केलि देखी।
उनके मन में काम जागा और वे वैसा ही सुख भोगने की इच्छा करने लगे।
उन्हें पिच्यासी साल की वृद्धावस्था में भी विवाह करने का मन हुआ और वे राजा मांधाता के पास आए।

राजा ने सोचा कि -इस वृध्ध मुनि से किसी कन्या का विवाह किया तो वह जीवन भर दुःखी होगी
और अगर न किया तो वे मुझे शाप देंगे।
फिर मुनि को उन्होंने कहा  - आप राजमहल में पधारें और जो भी कन्या आप को पसंद आए उससे विवाह होगा।

ऋषि सौभरी को मन में विवाह की भावना जागी तो वे स्वरुप बदलकर गए।
वे सिद्ध थे सो सुन्दर स्वरुप धारण करके राजमहल में पहुँचे। उनका स्वरुप देखकर पचासों राजकन्याएँ आपस में झगड़ने लगी। ऐसा हाल देखकर राजा ने सभी कन्याओं का विवाह इस ऋषि के साथ कर दिया।
सौभरी सुखोपभोग करने लगे।

किन्तु आगे चलकर ऋषि की विवेक बुद्धि जागृत हुई। वे पछताने लगे। और सोचने लगे-
"मै था तो तपस्वी किन्तु मत्स्यदम्पति की प्रेमकेली देखकर मतिभ्रष्ट हुआ,विलासी बन गया।"

जो साधना करना चाहता है,इसी जन्म में साध्य (इश्वर) की प्राप्ति करना चाहता है,
उसे काम-सुख के भोगो का संग नहीं करना चाहिए। काम-सुख के भोक्ता का संग भी कुसंग ही है।
स्त्रीसंगी का संग भी कुसंग है। यह स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का नहीं,काम की निंदा है।
सौभरी  ऋषि ने जगत को उपदेश दिया है कि कामी और विलासी लोगों के बीच रह कर ब्रह्मज्ञानी बन पाना बड़ा कठिन है। मानव के साथ रह कर मानव बनना सरल है।

इसके बाद सगर नाम चक्रवर्ती  सम्राट हुआ।
उसके यज्ञ का घोड़ा इन्द्र ने छिपा लिया तो उसके पुत्र,घोड़े की खोज में निकल पड़े।
उन्होंने अपने घोड़े को कपिल मुनि के आश्रम में देखा तो मान लिया कि इस ऋषि ने ही घोड़े को चुराया है।
"मारो उसे,यही चोर है " ऐसा कहते हुए वे सगर के पुत्र ऋषि की ओर बढ़ रहे थे कि -
सबके सब ऋषि की तेजोगनि में जलकर भस्म हो गए।

फिर,सगर का पौत्र  अंशुमान उन्हें ढूँढने निकला।
उसने कपिल भगवान की स्तुति की तो मुनि ने उससे कहा - यह घोड़ा तेरे पितामह के यज्ञ का है। इसे ले जा।
अंशुमान ने ऋषि से अपने चाचाओं के उद्धार का उपाय पूछा।
ऋषि ने कहा - इनका उद्धार गंगाजल से ही हो सकता है। इसका और कोई उपाय नहीं है।


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