Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-249



गंगा को प्रसन्न करने के लिए अंशुमान ने बाद उसके पुत्र दिलीप-फिर- दिलीप के पुत्र भगीरथ  ने भी तप किया। तीन पुरुषों का पुण्य एकत्र हुआ,तभी गंगावतरण हुआ।
तीन-चार जन्म का तप,पुण्य एकत्र होने पर ही "ज्ञान-गंगा" का अवतरण होता है।

भगीरथ राजा ने भगवान शंकरकी प्रार्थना की तो गंगा की धारा को सिर पर झेलने के लिए वे तैयार हुए।
शिवजी ने अपनी जटा में गंगाजी को उतारा,और वहाँ से वे धरती पर प्रवाहित हुई।
गंगाजी अनेक स्थानों को पवित्र करती हुई पाताल में गई। गंगाजी का स्पर्श होने पर उस भस्म में से दिव्य पुरुष उत्पन्न हुए। इस प्रकार सगर के पुत्रों को सदगति प्राप्त हुई।

शुकदेवजी कहते है-"राजन,गंगाजल का स्पर्श यदि मृत्यु के पश्चात भी मुक्ति देता है तो -
जीते जी उसका पान करने से सदगति मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
जीव को यदि शिव होना है। तो ज्ञानगंगा को वह अपने सिर पर धारण करे तो शिव बना जा सकता है।
गंगा ज्ञान का स्वरुप है।"

गंगाजी को भगीरथ राजा ने अवतरित किया,अतः उनका नाम भागीरथी भी हुआ।
गंगाजी नारायण के चरणों में से प्रकट हुई है। नारायण के चरण में गंगा है। शिवजी के सिर पर गंगा है।

आगे चलकर इस देश में खटवांग नामक राजा हुआ।
उसे देवों की ओर से मालूम पड़ा कि उसकी मृत्यु कुछ ही क्षण में होने वाली है।
उसने सब कुछ छोडकर भगवान से मन जोड़ दिया। परमात्मा का ध्यान करते हुए उसने देह-त्याग किया।
उसे सदगति मिली। इस प्रकार मात्र दो घटिका(अड़तालीस  मिनट) में खटवांग ने आत्म-कल्याण किया।

खटवांग के बाद दीर्घबाहु राजा हुआ और उसके बाद रघु। रघु महा ज्ञानी और उदार था।
अंत में उसने अपना सर्वस्व,धोती तक का त्याग किया। उनकी कीर्ति बहुत फैली।
इसी कारण से सूर्यवंश का नाम हुआ रघुवंश। उन्होंने कई यज्ञ-याग भी किये थे।

राजा रघु के घर अज  नामक राजा हुआ और अज के बाद दशरथ।
दशरथ अयोध्या में राज्य करते थे। वे पूर्वजन्म में ब्राह्मण थे।
इस पूर्वजन्म के ब्राह्मण का नियम था,कि गाँव के बाहर मंदिर में ठाकुरजी को प्रतिदिन एक हज़ार तुलसीदल चढ़ाना। जब वह पच्चासी वर्ष के वृध्ध हो गए। तो एक बार ज्वर आया.
तो उन्होंने ज्वर से कहा,तू आए इसमें मुझे  आपत्ति  नहीं है,किन्तु मेरे ठाकुर-पूजा के बाद आना।
मेरी सेवा का क्रम अटूट रहना चाहिए। ऐसा संकल्प सुनते ही ज्वर भाग गया।

एकबार जब वे  मंदिर में सेवा-पूजा के लिए गए-तब  किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी।
देखा तो एक पिशाचिनी रो रही थी। वह कहने लगी-पूर्वजन्म में मैंने दुराचार  किया था।
अपने पति को खूब दुःख दिया सो इस जन्म में पिशाचिनी होना पड़ा। आप कृपया मेरा उद्धार करो।

ब्राह्मण दयालु था। उसने प्रतिदिन के नियमानुसार विष्णु सहस्त्रपाठ के साथ तुलसीदल अर्पण करते हुए भगवान से प्रार्थना की -हे प्रभु! यह पापी जीव व्यथित हो रहा है। मै अपना सारा पुण्य अर्पण करता हूँ। आप इसका उद्धार करें। प्रभु प्रसन्न हुए। उन्होंने  ब्राह्मण से कहा -अगले जन्म में तुम दशरथ होंगे और यह पिशाचिनी होगी कौशल्या।

मै पुत्ररूप तुम्हारे घर आऊँगा। अपना सारा पुण्य तुमने एक जीव के उद्धार में लगा दिया है,अतः वह अनंत अमाप हो गया है। ब्राह्मण ने वहीं जीव त्याग दिया।

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