Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-253


राम की सभी लीला अनुकरणीय है। वे सभी गुणों के भंडार है। वे प्रत्येक स्त्री को मातृभाव से देखते थे।
मनुष्य एक ओर पुण्य करता है किन्तु दूसरी ओर पाप भी करता रहता है। परिणामतः उसे कुछ भी नहीं मिलता।

राम माता-पिता की आज्ञा हमेशा मानते थे। कैकेयी ने राम को वनवास दिया तो उन्होंने प्रणाम करके कहा-
माँ,मेरा भाई भरत यदि राजा बनने वाला हो तो मै चौदह वर्ष तो क्या आजीवन वनवासी रहने के लिए तैयार हूँ। यह तो तुम्हारा मेरी ओर पक्षपात है। भरत की अपेक्षा मुझ पर तुम्हारा प्रेम अधिक है। मुझे ऋषि-मुनियों के सत्संग का लाभ मिले,इस हेतु से ही तुमने मुझे यह वनवास दिया है।
मेरे कल्याण के कारण ही तुम मुझे आज वन में भेज रही हो।

रामजी की मातृ-पितृ भक्ति अलौकिक है। बंधु-प्रेम भी अलौकिक है।
रामजी मानते है कि मै स्वतंत्र नहीं हूँ,मेरा जीवन माता-पिता के आधीन है।
दशरथ राजा भी अपने को स्वतंत्र नहीं मानते। कोई भी काम वसिष्ठजी को पूछकर करते है।
रामजी सदा दशरथ और कौशल्या को प्रणाम करते है।

आजकल की प्रजा अपने माता-पिता को प्रणाम करते हुए लजाती है।
पिता की संपत्ति लेने में उन्हें कोई शर्म-संकोच नहीं होता और वंदन करने में संकोच होता है।
जीवन में अगर संयम और सदाचार न हो तो ज्ञान कोई काम का नहीं है।

रामजी में सभी गुण इक्कठे हुए है। उन्होंने एक पत्नी व्रत का पालन किया। अपने बड़ो को जो भी अच्छा लगा उसे जीवन में उतारा। रामजी ने दशरथ से सभी कुछ लिया,किन्तु बहुपत्नीत्व को नहीं लिया।
राम-राज्य में प्रभु ने कायदा सुधारा -एक पुरुष एक ही पत्नी कर सके।
पुरुष यदि एक ही स्त्री(पत्नी)में कामभाव रखे और धर्मानुकूल कामोपभोग करें तो गृहस्थ होने पर भी वह ब्रह्मचारी ही है। काम को व्यापक न होने देना। इस हेतु से ही विवाह का आयोजन किया गया है।
काम-भाव को एक ही पात्र में निहित करके उसका नाश करो।

निर्दोष तो केवल ईश्वर है। संभव है,गुरु में कोई दोष हो। किन्तु गुरु के दोष का अनुकरण नहीं करना चाहिए।
शास्त्र की यह मर्यादा है। ऐसी मर्यादा का पालन करने से जीवन सुधरेगा। रामजी ने एक स्त्री-व्रत का पालन किया। ईश्वर की धर्म-मर्यादा का जो पालन करें,वही सच्चा मनुष्य है।

वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड का एक प्रसंग है। हनुमानजी सीताजी से मिलने अशोकवन में आए थे।
वापस लौटते समय उन्होंने माताजी से कहा-अच्छा,मै अब जा रहा हूँ।
सीताजी -अच्छा हुआ तू मुझे मिलने आया। तेरा जाने के बाद ये राक्षनियाँ मुझे सताएगी।
हनुमानजी -यदि आप आज्ञा दे तो मै आपको कंधे पर बिठाकर इसी समय रामजी के पास ले चलू। मै रामदूत हूँ। मुझे कोई मार नहीं सकता।
सीताजी -नहीं,ऐसा नहीं हो सकता। तू मेरा पुत्र सा है,बालब्रह्मचारी है,पवित्र है। फिर भी तू पुरुष है,मै स्त्री हूँ।
मेरे लिए किसी पराए पुरुष का स्पर्श वर्ज्य है। पर-पुरुष के स्पर्श से सती  नारी के पतिव्रत्य का भंग होता है।
जगत को स्त्री धर्म का आदर्श बतलाने का लिए ही मेरा जन्म हुआ है। रघुनाथजी मेरे सिवा अन्य किसी भी स्त्री का स्पर्श नहीं करते है। मैंने भी उनके सिवा  किसी अन्य पुरुष के चरण का स्पर्श नहीं किया है।
तू ब्रह्मचारी है फिर भी मै तेरा स्पर्श करू तो धर्म की मर्यादा टूटती है।

स्त्री पति के सिवा किसी साधु-संत के चरण का भी स्पर्श न करें। उनको दूर से ही प्रणाम करो।
यह शास्त्र की मर्यादा है।

   PREVIOUS PAGE          
        NEXT PAGE       
      INDEX PAGE