Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-254



राम सरल है। पर सीताजी की सरलता अलौकिक है। रामजी जैसी सरलता इतिहास में कहीं भी नहीं मिलेगी। रामजी में कपट नहीं है। उन्हें किसी में दोष नहीं दिखते। राम जैसे राजा हुए नहीं है और कभी नहीं होंगे।
रामचरित्र अति  दिव्य है।  

राम-कथा तो सागर जैसी है। शिवजी ने एक करोड़ श्लोकों में यह कथा वर्णित की है।
शिवजी पार्वती को कहते है -मै राम कथा करता हूँ पर मुझे मालूम नहीं है कि राम कैसे है।
वे रोज पार्वती को कथा सुनाते है और हनुमानजी भी रोज सुनते थे।
रामजी स्वधाम पधारें पर हनुमानजी तो आज भी हयात है।
श्री हनुमानजी महाराज का संकल्प है कि जगत में जब तक राम-नाम है -तब तक वे जगत में रहेंगे।

एक बार देव,ऋषि और मनुष्य शिवजी के पास रामायण मांगने गए। रामायण के एक करोड़ श्लोक है।
शिवजी ने तीनों को बराबर-बराबर बाँटा तो एक श्लोक रहा।
देव,ऋषि और मनुष्य इस शेष बचे हुए श्लोक के लिए झगड़ने लगे। शिवजी को झगड़ा पसंद नहीं है।

जहाँ युद्ध,वैर,स्वार्थ,वासना,विषमता नहीं है,वही स्थान अयोध्या है,और राम भी वहीं अविरत होते है।
जब कैकेयी के मन में विषमता,स्वार्थ,वासना जन्मी तब राम ने अयोध्या का त्याग किया।

शिवजी के दरबार में बैल,सिंह,चूहा और सर्प सभी अपना-अपना जन्मजात बैर भूलकर एक साथ बैठते है।
शिवजी का वाहन नंदिकेश्वर और पार्वती का वाहन सिंह है। गणेशजी का वाहन चूहा,कार्त्तिकेय का वाहन मोर है। शिवजी के गले में सर्प है। सभी प्राणी अपना बेर भूलकर साथ बैठे है।

शिवजी ने कहा -श्लोक एक है और लेने वाले तीन है। इस श्लोक में बत्तीस अक्षर थे।
शिवजी ने तीनो को दस- दस अक्षर दे दिए। अब शेष रहे दो अक्षर !!
तब, शिवजी ने कहा कि इन दोनों अक्षरों को मे कंठ में रखूँगा। ये दो अक्षर है "राम"।
शिवजी ने राम को अपने पास,अपने ह्रदय में रखा। इसी तरह तुम भी राम को हमेशा अपने ह्रदय में  रखना।

भगवान शंकर रामायण के आचार्य है।
वे जगत को बताते है कि मै विष पि गया,फिर भी राम नाम के प्रताप से मुझे कुछ भी नहीं हुआ।
जीवन में विष पिने के कई प्रसंग आते है। जब  ऐसा कटु प्रसंग आए तो प्रेम से श्रीराम बोलो।
रामनाम से कंठ में से अमृत बहेगा,जो विष को नष्ट कर देता है।
रामनाम का जप करने से शिवजी को स्मशान में भी शांति है। शिवजी कहते है-
कि राम नाम की कथा करता हूँ पर राम कैसे है वह मै नहीं जानता। शिवजी की यह विनयशीलता है।
जो जान कर भी अज्ञानी सा बन कर जप करता है वही सत्य को जानता है।

अयोध्या में रघुनाथजी का प्राकट्य हुआ। लक्ष्मण,भरत और शत्रुघ्न का भी जन्म हुआ।
चारों बालक कौशल्या के आँगन में खेलने लगे और दिनों-दिन बड़े होने लगे।

रामजी खेल-कूद में भी अपने भाइयों को सताते नहीं है। वे जीत हमेशा अपने छोटे भाइयों को ही देते थे।
वे मानते थे कि अपने छोटे भाईयो की जीत ही मेरी जीत है। यदि उनकी हार होगी तो उन्हें दुःख होगा।
सो स्वयं हार स्वीकार के लेते थे। भाइयों की आँख में आँसू उनसे देखे नहीं जाते थे।

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