प्राचीन काल में मर्यादा थी कि राजा के बड़े बेटे को गुरु राजमहल में पढ़ाने नहीं आते। शिष्य को गुरु के वहाँ पढ़ने जाना पड़ता। प्राचीन काल में राजा के पुत्र गुरुकुल में रहते थे। विद्या के साथ सदाचार और संयम की शिक्षा मिले तो शिक्षा सफल होती है। ऋषि सदाचारी और संयमी होते थे इसलिए वो गुण शिष्य में आते थे।
संसार मायामय है। माया में आने के बाद ईश्वर को भी गुरु की जरुरत पड़ती है। श्रीराम परमात्मा है। उन्हें माया का स्पर्श नहीं है। फिर भी जगत को आदर्श दिखाने के हेतु से गुरु के पास विद्याभ्यास के लिए गए। गुरु की सेवा कर ज्ञान का संपादन किया। रामजी विद्याभ्यास करके घर वापस आए है।
फिर,रामजी १६ साल की उम्र में यात्रा करने गए। यात्रा करने से उन्हें वैराग्य आ गया।
इस वैराग्य को दूर करने के लिए वसिष्ठजी ने योगवासिष्ठ महारामायण में उपदेश दिया है।
इसका प्रथम प्रकरण वैराग्य से सम्बंधित है।
यह प्रकरण सभी को पढ़ना चाहिए,इसमें वसिष्ठजी कहते है - वैराग्य को अंदर ही रखना।
वसिष्ठजी राम को कहते है -तुम क्या छोड़ना चाहते हो?संसार को छोड़ने की जरुरत नहीं है।
छोड़ कर कहाँ जाओगे?जहाँ भी जाओगे वहाँ जगत है।
संसार के विषय सुख देते है वह समझना छोड़ दो। वैराग्य अंदर रखो।
बहिरंग का (बहार) से किया हुआ त्याग वह सच्चा त्याग नहीं है। अंतरंग (अंदर) से किया त्याग सच्चा त्याग है। त्याग मन से करना है। संसार में सच्चा सुख नहीं है-ऐसा मानकर संसार में रहना है।
संसार बंधन नहीं करता। ममता बंधन करती है। मन संसार का चिंतन करें तब तक जीता है। संसार मनोमय है। स्व-रूप (आत्मा) का ज्ञान होने के बाद मन का बनाया हुआ ये संसार सुख-दुःख नहीं देता।
राग-द्वेष से नया प्रारब्ध उत्पन्न होता है। नया प्रारब्ध मत उत्पन्न मत करो।
पुराने प्रारब्ध को भुगतो पर -नया प्रारब्ध मत उत्पन्न करो।
भगवद इच्छा और प्रारब्धसे जो व्ययवहार कार्य प्राप्त हुआ है वह परमात्मा का अनुसन्धान रखकर करना है।
वन में जाओगे तो भी संसार साथ आएगा। घर बाधक नहीं है पर घर में रही चीजो में आसक्ति बाधक है। संसार दुःख नहीं देता पर संसार की आसक्ति दुःख देती है। प्रारब्ध से जो प्राप्त हुआ है उसे प्रभु का प्रसाद समझकर अनासक्तपूर्वक भुगतो तो कोई तकलीफ नहीं है। जो आसक्ति से निवृत हुआ है उसके लिए घर भी तपोवन है।
हे,राम,घर छोड़ोगे तो झोपडी की भी जरुरत पड़ेगी। अच्छे कपडे पहनने छोड़ दो तो भी लंगोटी की भी जरुरत पड़ेगी। अच्छा खाना छोड़ दो तो भी कंदमूल की भी जरुरत पड़ेगी।
जब तक लंगोटी की जरुरत है तब तक संसार नहीं छूटता।
व्यवहार उसका छूटे जिसे ईश्वर के सिवा किसी की भी जरुरत नहीं है।
इसलिए राज्य छोड़ने की जरुरत नहीं है। पर काम,क्रोध,लोभ,आसक्ति छोड़नी है।
वैराग्य अंदर होना चाहिए। जगत को बताने के लिए नहीं। साधु होने की जरुरत नहीं है। सरल होने की जरुरत है। मन विषय का ध्यान करता है तब जीता है। मन जब ईश्वर का ध्यान करता है तो ईश्वर में मिल जाता है। जन्म-मृत्यु का कारण है मन। मन नहीं है तो संसार नहीं है।
वसिष्ठजी कहते है -आप तो परमात्मा हो -आप तो लीला करते हो।