राम-रावण का युद्ध हो रहा था तब कुम्भकर्ण सो रहा था।
मददके लिए जब रावण ने उसे जगाया तो उसने पूछा -मुझे क्यों जगाया?
रावण-सीता के लिए युद्ध हो रहा है। तेरी मदद के लिए -तुम्हे जगाया।
कुम्भकर्ण-तू सीताजी को क्यों लाया?
रावण-"वह बहुत सुन्दर है इसलिए लाया हूँ। "
कुम्भकर्ण-"तेरी इच्छा पूर्ण हुई?"
रावण-"नहीं।वह पतिव्रता है मेरे सामने नज़र उठाके देखती भी नहीं है।"
कुम्भकर्ण-"तू अपनी मायासे राम का रूप धारण करके सीता के पास जा। तुझे राम मानकर तेरे वशमें आ जाएगी।"
रावण-"मैने प्रयत्न किया पर राम में कुछ जादू है। मै उसका रूप धारण करने के सोचता हूँ कि तुरन्त मेरा मन बदल जाता है। जब मै राम का रूप माया से धारण कर देखता हूँ तो सीता मुझे माता-रूप से दिखाई देती है।
मेरे मन में काम तक नहीं रह पाता।"
कुम्भकर्ण कहने लगा -राम का मायावी रूप तेरे काम को मारता है। जिसका नकली रूप इतना प्रभावशाली है,तो मूलरूप कितना प्रभावशाली होगा ?अतः निश्चय ही राम परमेश्वर है। तू अतिशय कामी है,फिर भी राम के स्मरण से निष्कामी बन जाता है। सो राम ईश्वर ही है। ऐसे राम के साथ वैर करना ठीक नहीं है। देवाधिदेव से वैर करने वाला तू मूर्ख है। मै तेरी सहायता नहीं कर सकता। विभीषण की भांति मै राम के चरणों का आश्रय लूँगा।
रावण-"मै राम की शत्रु भाव से भक्ति करता हूँ। यदि मै अकेला ही भक्ति करूँगा तो मात्र मेरा ही कल्याण होगा। किन्तु शत्रु-भाव रखू तो मेरे सारे वंश का कल्याण होगा। ये सभी राक्षस तामसी है। वे जप,तप ध्यान,सेवा पूजा नहीं करते। रामजी के साथ शत्रुता होगी तो युद्ध होगा तो राम प्रत्यक्ष दर्शन होंगे और राम-दर्शन से हम सभी का उद्धार होगा। अपने सारे वंश के कल्याण क हेतु से मैंने राम से शत्रुता की है।"
यज्ञ या कोई भी सत्कर्म करते समय इन्द्रियों के प्रत्येक द्वार पर राम को बैठाने से सत्कर्म पूरा होता है। जप,कथा-श्रवण मन से नारायण को मिलना वगेरे भी यज्ञ ही है जो गरीब से गरीब व्यक्ति भी कर सकता है।
और सब यज्ञ में धन चाहिए,अधिकार चाहिए, प्रायश्चित -वगैरा भी करना पड़ता है।
कई यज्ञ तो -मात्र अग्निहोत्री-ब्राह्मण ही कर सकता है। कुछ यज्ञों के लिए देश-काल भी मर्यादा निश्चित है।
परन्तु उपनिषद में एक ऐसा यज्ञ बताया है जो कोई भी मनुष्य कभी भी कर सकता है। और वह जप यज्ञ।
सर्व यज्ञोंमें जप यज्ञ श्रेष्ठ है। आँखोंसे दर्शन करते और मनसे स्मरण करनेसे अपने आप समाधि लग जाती है। इससे चित्तशुद्धि मिलती है। और चित्तशुद्धि का फल है परमात्मा की प्राप्ति।
प्रत्येक इन्द्रियों (आँख,कान,मुख,आदि) में राम-लक्ष्मण को रखना है।
ऐसा करने से मारीच-विषय विघ्न नहीं करेंगे।
राम-लक्ष्मण की सहायतासे विश्वामित्र का यज्ञ समाप्त हुआ है।
उसी समय जनकपुरी से निमंत्रण-पत्रिका आई है कि सीताजी का स्वयंवर है।
विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को लेकर जनकपुरी जाने के लिए निकले है। रस्ते में गौतम ऋषि का आश्रम आया है।
वहाँ शिला (अहल्या -जो शाप से शिला-रूप बनी हुई थी) को देखकर विश्वामित्र ने राम को आज्ञा दी -
इस शिलाको तुम्हारे चरण स्पर्श करो,और शिलारूप बनी अहल्या का उद्धार करो।
रामजी सोच में पड़े है।
रामजी कहते है-परस्त्री को मै स्पर्श नहीं करता। उससे उसको सदगति मिलेगी पर मुझे पाप लगेगा।
मै ऐसा नहीं कर सकता। मै उसे वंदन करता हूँ।
रामजी परस्त्री को स्पर्श नहीं करते है। ऐसा लिखा है कि बिना कारण सगे भाई को को भी स्पर्श न करो।
स्पर्श करने से स्पर्श करनेवाले के परमाणु अपने में आते है।
कवियों ने कल्पना की है-राम ने अहल्या का चरण स्पर्श नहीं किया।
हवा से उड़ती हुई, रामके चरणों को धूलि,उस शिला पर जा पड़ी। फलत:शिला अहल्या बन गई।