कोमल बुद्धि ही ईश्वर के पास जा सकती है। जड़ बुद्धि जब कोई संत-महात्मा से पवित्र होती है तभी वह ईश्वर के पास जा सकती है। जैसे,शिला भी राम चरण रज से पवित्र बनी,
उसी तरह राम-नाम के स्पर्श से,मानवी का मैला मन पवित्र बनता है।
राम-लक्ष्मण,विश्वामित्र के साथ जनकपुरी में आए है। गाँव के बाहर मुकाम किया है।
जनकपुरु के राजा जनक को पता चला की विश्वामित्र आये है तो उनका स्वागत करने वे खुद आये है।
ऋषि के साथ कुमारो को देखकर वे सोचने लगे कि ये ऋषिकुमार है कि राजकुमार?
उन्होंने विश्वामित्र को पूछा -ये बालक कौन है?
विश्वामित्र बोले -आप तो ज्ञानी हो-आप ही निर्णय करो कि ये कौन है ?
जनकराजा महाज्ञानी है। शुकदेवजी जैसे भी उनके यहाँ सत्संग के लिए आते है।
जनक का दूसरा नाम है विदेह। जो देहयुक्त होकर भी देहधर्मोसे अस्पृश्य है वही विदेह है। विदेह जीते-जी मुक्त है।
ब्रह्मानुभाव में जो विषयरस को भूल जाए,वही ज्ञानी है।
आसक्ति और अभिमान जीव को बांधे रहते है। ज्ञानी इन दोनों का त्याग करता है।
गीता में भी कहा है -सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने कार्य और अर्थ में काम करती है,
ऐसा मानकर ज्ञानी किसी भी विषय में आसक्त नहीं होते।
जनकराजा ने त्राटक किया। उन्होंने राम को क्षण में पहचान लिया है।
वे बोले-"ये ऋषिकुमार नहीं है,राजकुमार भी नहीं है। राम कोई मानव नहीं है,राम कोई देव नहीं है,
पर वेदों -नेति-नेति -कहकर जो ब्रह्म का वर्णन करते है और शंकर सदा जिनका चिंतन करते है -
वही -ये साक्षात परब्रह्म परमात्मा है।
मेरा मन सदा ब्रह्म का चिन्तन करता है। मेरे मन को ईश्वर के सिवा अन्य कोई आकर्षित नहीं कर सकता।
पर ये दोनों,मेरे मनको आकर्षित करते है,सो ये ईश्वर ही है।
ईश्वर के बिना मेरा मन किसी भी विषय में जा नहीं सकता।"
जनकराजा को अपने मन पर कितना विश्वास था?
कण्व मुनि के आश्रम में प्रथम मिलन के समय दुष्यंत ने शकुन्तला से पूछा-तुम कौन हो?
शकुन्तला -मै महर्षि कण्व की कन्या हूँ।
दुष्यन्त-तुम्हे देखकर मेरा मन चंचल हुआ है। ब्राह्मण कन्या मेरे लिए माता समान है। तुम्हे देखकर मेरा मन चंचल हुआ है अतः मै मानता हूँ कि तुम मेरी जाति की हो। मेरा मन इस बात का प्रमाण है।
(अपने मन पर उनको इतना विश्वास था। )
शकुन्तला -आप पवित्र है,महान है। आपकी बात सच है। मेरे सच्चे पिता क्षत्रिय है। ऋषि मेरे पालक पिता है। इसलिए मै ऋषि कन्या नही पर क्षत्रिय कन्या हूँ।