Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-262


जनक राजा बोले-अब तक मै निराकार ब्रह्म का चिंतन करता था। आज मेरा मन कह रहा है कि -
निराकार ब्रह्म का चिंतन छोड़ कर इस सगुण राम का चिंतन करू - तो अच्छा है।
मुझे अब लगता है कि निराकार नहीं,साकार का ध्यान करू। राम ईश्वर ही है।

विश्वामित्र कहते है -राजन,यह तो तुम्हारी दृष्टिका गुण है। ज्ञानी अभेदभाव से चिन्तन करते है।
तुम्हारी वृत्ति ब्रह्माकार है सो तुम्हे ऐसा लगता है -अन्यथा ये तो दशरथ के पुत्र है।

जनक राजा महाज्ञानी है। संसार में रहते है पर उनके मन में संसार नहीं है।
संसार में रहने से पाप नहीं होता पर संसार को मन में रखने से पाप होता है।
गीता में श्रीकृष्ण ने भी जनक राजा की प्रशंसा की है-  जनक राजा ने कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त की है। जनक राजा की सदा एक ही भावना थी “मै शरीर नहीं -शुद्ध चेतन आत्मा हूँ “

राम-लक्ष्मण और विश्वामित्र जनकपुरी के बाहर एक उद्यान में रहे है। सांयकाल की संध्योपासना भी नियमित करते है। विश्वामित्र के साथ सत्संग करते है और रात को उनके चरण की सेवा करते है।
विश्वामित्र ने उनको ह्रदय से आशीर्वाद दिए। आशीर्वाद मांगने से नहीं,अपने आप ह्रदय से मिल जाते है।

गुरूजी और राम जब  सो गए है। तब,लक्ष्मण रामके चरण की  सेवा कर रहे है
और सोचने लगे कि -"अब बड़े भाई का विवाह होगा,अतः उनकी चरण-सेवा का लाभ अब भाभी को मिलेगा।
सेवा करने का यह मेरा अंतिम दिन है। राम की  सेवा के बिना मुझे चैन नहीं मिलता।"
उनका ह्रदय भर आया और आँखों से आँसू निकले है।
रामजी तो अंतर्यामी है। लक्ष्मण को कहने लगे -"भाई,मेरे विवाह के बाद दाहिने चरण की सेवा तुम करना
और बाएँ चरण की सेवा सीता करेगी। तुम्हे देखे बिना मुझे नही नींद नहीं आती।
विवाह के बाद भी मै तुम्हे नहीं छोडूँगा।"  रामजी का ऐसा बन्धुप्रेम था।

दूसरे दिन प्रातःकाल हुआ। लक्ष्मणजी सबसे पहले उठ गए।
वे सबके बाद सोते है और सबसे पहले उठते है। यही धर्म सेवक का है।
विश्वामित्र शालिग्राम की पूजा करते थे सो राम-लक्ष्मण को पूजा के लिए पुष्प-तुलसी लेने के लिए उद्यान में भेजा। बगीचे में आकर रामजी सोचते है कि  माली को पूछे बिना फूल लू तो पाप लगेगा।
उसने बगीचे के माली को पूछा - चाचा,पूजा के लिए फूल लूँ।
माली ने कहा -मै तो राजा का अधम सेवक हूँ।
रामजी बोले -भले आप सेवक हो पर मेरे लिए तो आप मेरे पिता समान हो। माली की आँख में आँसू आये है।
वे बार-बार रामजी को वंदन करता  है।

रामजी की प्रत्येक लीला में मर्यादा है। वे सर्व को मान देते है। राम-लक्ष्मण तुलसी को वंदन करते है।
फिर तुलसी और फूल तोड़कर इकठ्ठे करते है।
बगीचे में जगदम्बा का मंदिर है। सीताजी उसी समय माताजी के दर्शन करने आती है।
सीता-रामजी की दृष्टि का मिलन हुआ।
(इस दृष्टि मिलन  की कथा मात्र तुलसीदासजी के रामचरितमानस में ही है। और कोई रामायण में नहीं है।)
सीताजी ने जगदम्बा को प्रणाम करके राम-जैसा पति माँगा। माताजी प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती है।

राम-लक्ष्मण पुष्प लेकर वापस आये है। उन्होंने विश्वामित्र से कहा कि -
जिस कन्या का स्वयंवर होने जा रहा है वह भी बगीचे में आई थी।
रामजी का स्वभाव सरल है। उनके मन में चल कपट नहीं है।
विश्वामित्र बोले -मुझे पता है इसलिए मैंने तुम्हे वहाँ भेजा था
ताकि - वे तुम्हे देखे और पता चले मेरे राम कितने सुन्दर है।


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