किन्तु व्यवहार की छोटी सी भूल भी लोग क्षमा नहीं करते। व्यवहार में अत्यंत सावधान रहना चाहिए।
जब तक शरीर है तब तक व्यवहार करना पड़ता है पर उसमे डूब नहीं जाना।
जब तक साधु-महात्मा को मुठ्ठी भर अन्न की जरुरत रहती है,
तब तक उन्हें भी गृहस्थी की भाँति हो व्यवहार करना पड़ता है।
व्यवहार करते समय आत्मस्वरूप से सम्बन्ध न रखा जाये तो पाप होता है।
परमार्थ सरल है किन्तु सांसारिक व्यव्हार बड़ा संकुल है।
जिस प्रकार स्त्री अपने बालक में अपना सूक्ष्म मन रखकर घर का कार्य संभालती है,
उसी प्रकार सूक्ष्म मन को ईश्वर के साथ रखकर व्यवहार करोगे तो सफल होगे।
कौशल्या की दासी ने मंथरा को ताना मारा तो उसके दिल में मत्सर जाग उठा। वह ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगी। कैकेयी के आगे वह जोर-जोर से रोने लगी।
कैकेयी ने रोने का कारण पूछा। मंथरा तो बिना कुछ कहे-सुने रोती ही जा रही थी।
कैकेयी के मन में राम के प्रति स्नेह है सो वह राम का कुशल-मंगल पूछती है। राम कुशल तो है न?
वैसे तो पति की कुशलता पहले पूछनी चाहिए
किन्तु कैकेयीको राम पर अति स्नेह है अतः राम के समाचार ही पूछ रही है।
मंथरा कहें लगी-हाँ,राम तो आनन्द में ही है। राम के पिता कल उनका राजयभिषेक कर रहे है।
राम के यह समाचार सुनकर कैकेयी ने उनका हार उंतारकर मंथरा को दिया।
कैकेयी के मन में अभी तक कलि ने प्रवेश नहीं किया था। किन्तु मंथरा ने हार फ़ेंक दिया।
सभी खुश थे ,किन्तु मंथरा बैचेन थी। कैकेयी को आश्चर्य हुआ और मंथरा को पूछा -
मेरे राम का राजयभिषेक हो रहा है इसलिए मुझे ख़ुशी हो रही है पर तुझे इतना दुःख क्यों हो रहा है।
सूर्यवंश की परंपरा है कि ज्येष्ठ पुत्र राजा का पद पाए।
मैंने कई बार राम की परीक्षा की है। वे कौशल्या से भी बढ़कर मुझे प्रेम करते है।
कैकेयी भोली है। मंथरा के स्पर्श होने पर ही,उसके मन में भी पाप जागेगा।
मंथरा ने स्त्री चरित्र शुरू कर दिया। रोती हुई धरती पर जा गिरी और कहने लगी -चाहे राम राजा बने या भरत।
मुझे क्या लेना-देना है? मै तो दासी की दासी ही रहूँगी। मेरा तो कोई स्वार्थ नहीं है। बात तो तुम्हारी बिगड़ रही है। मै चाहती हूँ कि तेरी बिगड़ने वाली बात को सुधार दू।
कैकेयी मंथरा की कपटभरी वाणी में फँस गई। वह सोचने लगी कि मंथरा गलत तो नहीं बोलती।
राम राजा हो या भरत उसमे उसका क्या स्वार्थ? लगता है कि उसके मन में कुछ है जो कहने आई है।
कैकेयी मंथरा के पास आकर उसकी पीठ पर थपथपाने लगी।
उसने ज्यों ही मंथरा को स्पर्श किया,उसके मन में कलि ने प्रवेश किया।
मंथरा ने कहा -मैंने तुम्हारा जूठा खाया है,तुम्हारे कपडे पहने है,मुहे तो बोलते भी डर लगता है।
वैसे तो मुझे कुछ नहीं कहना चाहिए. पर तुम्हारा अहित होने जा रहा है वह मुझसे देखा नहीं जाता है।
मै तेरी बिगड़े बात को बनाना चाहती हूँ। मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं है।
कैकेयी बोली- बोल मुझे क्या करना है?
मंथरा को अब पूरा भरोसा हो गया है कि कैकेयी उसकी आधीन हो गई है
इसलिए कहती है कि -तुमने मुझे कहा था के राजा के पास तुम्हारे दो वरदान बाकी है,वह मांग ले।
एक तो भरत का राज्याभिषेक और दूसरा राम को चौदह वर्ष का वनवास।