तभी लक्ष्मण वहाँ आ पहुँचे। अति गुस्से में है और बोले-दशरथ राजा स्त्री के आधीन है। उनके वचन में विश्वास रखना योग्य नहीं है। मै राम का अभिषेक करूँगा। राजयभिषेक में कोई विघ्न करेगा - तो मै उसे मार डालूँगा।
राम लक्ष्मण को समझाते है -लक्ष्मण क्रोध न करो। यह सब दिखता है वह मिथ्या है।
कौन राजा और कौन प्रजा? राज्य का सुख तुच्छ है। संसार का सुख भी क्षणिक है। सत्य के लिए प्रयत्न करना वही योग्य है। तूम्हे सब का रक्षण करना है। तुम्हे माता-पिता की सेवा करने घर में रहना है।
लक्ष्मण बोले-आप ही मेरे माता-पिता है। आप मेरा त्याग करोगे तो मै कहाँ जाऊँगा। मेरा त्याग मत करो। राम-सीता के बिना मै नहीं रह सकता। मै आपके साथ वन में आऊँगा। आपको अकेले मै वन में नहीं जाने दूँगा।
राम जानते थे कि लक्ष्मण उनके बिना नहीं रह सकता इसलिए कहा जाओ जाकर सुमित्रा की आज्ञा लेकर आओ। लक्ष्मणजी सुमित्रा के पास आये है।
उन्होंने संक्षेप में सारी बात बता दी और कहा कि मुझे राम के साथ जाने के लिए आज्ञा दो।
सुमित्रा ने कहा -तुझे जहाँ सुख लगे वहाँ जा सकता है। तेरा सुख रामजी के चरण में है।
अनन्य भाव से राम-सीता की सेवा करना।
उर्मिला(लक्ष्मण की पत्नी} उस समय वहाँ आई है। एक भी शब्द नहीं बोली।
मन से से प्रणाम करके उनके चरणों में वंदन किया है।
सीता-राम और लक्ष्मण दशरथ के पास आये है।
दशरथ को समझाते है -पिताजी धीरज रखो,मे वन में जा रहा हूँ हमे आज्ञा और,आशीर्वाद दो।
कैकेयी बोली -मेरी आज्ञा ही पिता की आज्ञा है। वे स्वयं तो कुछ भी नहीं कह पायेंगे।
फिर कैकेयी की आज्ञा से वल्कल वस्त्र लाए गए।
राम,लक्ष्मण अपने राजसी कपडे छोड़कर वल्कल कपडे धारण किये।कैकेयी अब सीता को वल्कल वस्त्र देने लगी। इतने में वहाँ वसिष्ठजी आये। उन्होंने सीताजी के वल्कल छीन लिए और कैकेयीसे कहा -
तुमने राम को वनवास दिया है,सीता को नहीं। सीता तो हमारी राजलक्ष्मी है।
अयोध्या की प्रजा अब व्याकुल हुई है। सभी प्रजाजन कह रहे है कि-
हमें भी अब अयोध्या में रहना नहीं है। हम भी राम के साथ वन में जायेंगे।
राम ने जनता से कहा -मेरे पिता की सेवा करो। जो उनकी सेवा करेगा वही मुझे प्रिय होगा।
वसिष्ठजी आप सबकी रक्षा करेंगे। किन्तु जनता कहने लगी -जहॉ राम होंगे,वही हम होंगे।
फिर भी जनता सहमत हो नहीं रही है।
राम,लक्ष्मण और सीता के साथ सभी प्रजाजन ने भी वन की ओर प्रयाण किया।
कैकेयी ने कहा कि राम तो गया और साथ-साथ अयोध्या को भी उजाड़ता गया।
जहाँ तेरा मेरा,अपने-पराये का भेदभाव है,वहाँ ईश्वर नहीं विराज सकते।
दशरथजी जब मूर्छा से जागे तब पता चला कि राम वन में गए।
वे सोचते है -”मेरा राम गया तो मेरे प्राण क्यों अब तक बाकी है।”
उन्होंने मंत्री सुमंत को बुलाकर सोने का रथ मँगवाया और कहा कि -
ये ले जाओ और राम से कहो कि वे वन में चल कर नहीं पर रथ में बैठ कर जाये। ये मेरी आज्ञा है।
दो-चार दिन वन में घुमाकर वापस अयोध्या ले आना। राम शायद वापस न आये पर सीताजी को समझाकर वापस ले आना। सीताजी के देखकर मै थोड़े दिन जी सकूँगा।