Bhagvat-Rahasya-Hindi-भागवत रहस्य-270


रामजी कौशल्याजी को समझाते है-पूर्वजन्म में मैंने माँ को दुःख दिया था सो इस जीवन में वह मुझे दुःख दे रही है। महात्मा कहते है कि -राम ने वाली की हत्या की थी-
तो वही वाली ने कृष्णावतार के समय पारधिका रूप लेकर आया,और उसके  बाणसे श्रीकृष्णको प्राण त्यागने पड़े।

सारी रात गृहक के साथ लक्ष्मणजी ने बातें की है।
ब्रह्ममुहूर्त में रामचन्द्रजी ने स्नानादि से निवृत होकर शिवजी की पूजा की।
रघुनाथजी  आदर्श बताते है कि -मै ईश्वर हूँ फिर भी शिवजी की पूजा करता हूँ।

रामजी ने गृहक को वापस लौटें को कहा पर गृहक ने मना किया। तो रामजी बोले -अच्छा,हम चित्रकूट पहुँचे तब लौट जाना। रघुनाथजी ने वटवृक्ष के दूध से बाल की जटा बनाई। अब वे तपस्वी रूप बने है।
राम,सीता और लक्ष्मण गंगा किनारे आये है। गंगाजी के सामने किनारे जाना था।

गंगाजी में केवटजी नौका में खड़े है। रामजी को दूरसे आते हुए देखकर हर्षसे पागल हो रहे है।
उन्हें रामचरण की सेवा की अपेक्षा है। कुछ तो करना चाहिए,आज मौका है। इसीलिए-जब-
लक्ष्मणजी ने दूर से पूछा-”हमको सामने पार ले जायेगा” .
केवट अपनी नौका में से ही कहने लगा -"मै तुम्हारा मर्म जानता हूँ।"
लक्ष्मण-"तू क्या मर्म जानता है?"
केवट-"राम के चरणों की धूल के स्पर्श से पथ्थरकी अहल्या सजीव हो गई। मेरी नौका तो लकड़ी की है।
राम-चरण के स्पर्श से अगर मेरी नौका भी स्त्री बन गई तो मै अपने परिवार का पालन कैसे करूँगा।
और इस दूसरी स्त्री का क्या करूँगा? यदि आप मेरी नौका में बैठने चाहते है तो पहले मुझे रामचन्द्रजी के चरण धोने की अनुमति दो जाए। उनके चरण धोकर धूलि साफ़ करने के बाद ही मै उन्हें अपनी नौका में बैठने दूँगा। "

केवट के प्रेमपूर्ण वचन सुनकर रघुनाथजी को प्रसन्नता हुई। उन्होंने केवट को अपने पास बुलाया।
रामचन्द्रजी सोच रहे थे कि मेरे दोनों पाँवो के स्वामी तो यहाँ ही है ,अब तीसरा आ गया।रामजी ने मंजूरी दी है।
केवट  लकड़ी का बर्तन लेकर आया है। गंगाजल से धीरे-धीरे पाँव पखारे है।  केवट भाग्यशाली था।
वह दोनों चरणों की सेवा कर सका। केवट तन्मय हुआ है -”आज मेरे जन्मो-जन्म की इच्छा पूरी हुई है।

यह केवट पूर्वजन्म में क्षीर समुद्र में कछप था। वह नारायण की चरण-सेवा करना चाहता था पर लक्ष्मीजी और शेषजी मना  करते है। उनकी इच्छा मन में ही रह गई। आज लक्ष्मीजी सीता बनी है और शेष लक्ष्मण।
केवट मन ही मन मुश्करा रहा है-और मन ही मन सीताजी और लक्ष्मण को कह रहा है कि-
"अगले जन्म में तो आपने मुझे नारायण की चरण-सेवा नहीं करने दी थी।
आज आप दोनों खड़े और मै सेवा कर रहा हूँ।"

केवट ने राम,लक्ष्मण और सीता को गंगा पार कराइ और साष्टांग  प्रणाम किया।
सामान्यतः नौका पार कराने का किराया देना पड़ता है -
पर आज राम के पास देने के लिए कुछ नहीं है जो वे केवट को दे सके।
तीनो लोक के स्वामी की नजर आज,केवट से नजर नहीं मिला शकती है !!!
केवट को खाली हाथ  विदाय देते राम को खूब संकोच हो रहा है। सीताजी राम का मनोभाव जान गई।
उन्होंने अपनी अँगूठी राम को दी। रघुनाथ केवट को अँगूठी देने लगे और कहा कि -ये तुम्हारी उतराई !!


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