सर्व साधन का फल है ईश्वर के दर्शन। भगवद दर्शन के बिना शान्ति नहीं मिलती और जीवन सफल नहीं होता।
एक रात प्रभु ने वहाँ मुकाम किया। दूसरे दिन सुबह रामचन्द्रजी ने भरद्वाज मुनि से कहा -वाल्मीकि ऋषि के आश्रम का मार्ग दिखलाने के लिए आपके शिष्य को हमारे साथ भेजिए। चार ऋषि-कुमार साथ गए।
सभी वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में आए है।
वाल्मीकि पहले भील जाति के थे। जो लोगों को लूटता था। कुसंग से बिगड़ा था।
नारदजी के सत्संग ने उसका जीवन बदल दिया।
वाल्मीकि अपनी कथा सुनाते है।
एक बार सप्तर्षि ऋषि जंगल में से जा रहे थे। मेरी नजर पड़ी और मैंने सेवको को आज्ञा दी की इन्हे पकड़कर लुटो। सप्तर्षि बोले -हम सब कुछ देने के लिए तैयार है।
इतने में नारदजी आये और मुझे पूछा -तू किसके लिए पाप कर रहा है?
मैंने जवाब दिया -मेरे परिवार के लिए। पाप न करू तो फिर खिलाऊ क्या?
नारदजी ने पूछा-क्या तेरे परिवार के लोग तेरे इस पाप में हिस्सेदार है?
मैंने कहा -क्यों नहीं?वे सब मेरे पाप के हिस्सेदार है।
नारदजी-तू अपने घर जा और सभी से पूछ कि क्या वे तेरे पाप में हिस्सा लेंगे?
मैंने अपने घर आकर अपनी पत्नी और संतान से पूछा-मै जो पाप कर रहा हूँ क्या तुम सब उसके हिस्सेदार हो?
सब ने बताया की जो पाप करे वह भुगते। हम क्यों बने हिस्सेदार ?तुम्हारे पाप से हमे क्या लेना-देना।
मेरी आँखे खुल गई। उन सब पर मुझे ग्लानि आ गयी। मेरा मोह,मेरा भ्रम अब नष्ट हो चुका था।
मैंने नारदजी को सारी बात सुनाई। नारदजी ने मुझे राम-नाम का मन्त्र दिया किन्तु मै पापी और अनपढ़ था।
मेरे मुँह से ”राम-राम”के बदले “मरा -मरा’ शब्द निकलता रहा। रामनाम का जप ठीक से नह कर सका।
मै तो जप उल्टा ही करता रहा। किन्तु प्रभु ने मुझ पर कृपा की और मेरा उद्धार किया।
रामचन्द्रजी ने वाल्मीकिजी से कहा -हम वन में रहना चाहते है। हम कहाँ रहे?
हमे कोई अच्छा स्थान बताने की कृपा कीजिये।
वाल्मीकिजी बोले- वैसे तो आप कहाँ नहीं है?जहॉ आप न हो,ऐसा एक भी स्थान नहीं है। आप सभी जगह है।
फिर भी मै आपको स्थान बताता हूँ। आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिये।
भागवत की तरह वाल्मीकि रामायण भी समाधिभाषा है।
शुद्ध चित्त ही चित्रकूट है। अंतःकरण परमात्मा का सदा ध्यान करे,तभी उसे चित्त कहते है।
वही अंतःकरण जब
-संकल्प-विकल्प करे-तब उसे मन कहते है,
-निश्चय करे-तब उसे बुद्धि कहते है।
-अभिमान करे-तब उसे अहंकार कहते है।